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________________ ३१४ : जनसाहित्यका इतिहास देवसे पूर्व भाष्यकी रचना होना विशेष संभव है तब तो यही अधिक संभव प्रतीत होता है कि अकलंक देवके सामने भाष्य था। __यह कहा जा सकता है जैसा कि सर्वार्थसिद्धिके एक उल्लेखके आधारपर पीछे लिखा भी है कि तत्त्वार्थसूत्रकी कोई अन्य टीका भी होना संभव है और ऐसी स्थितिमें अकलंकदेवने तथा भाष्यकारने उक्त समान बातें उससे ली होगी यह संभव है। किन्तु सर्वार्थसिद्धि के एक उल्लेख तथा पाठान्तरके आधार पर यदि यह मान भी लिया जाये कि तत्त्वार्थसूत्रको कोई अन्य टोका सर्वार्थसिद्धिसे पूर्व रची गई थी और वह पूज्यपाद के सामने मौजूद थी, तब भी उक्त सब बातोंको या उनमेंसे कुछ समान बातोंको, जो वार्तिक और भाष्यमें समान रूपसे पाई जाती हैं, उस टीकाका ऋणी तो नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उनमेंसे कोई भी वात सर्वार्थसिद्धिमें नहीं मिलती। यदि उक्त टीकामें वे वातें होती तो सर्वार्थसिद्धिमें उनकी कुछ तो झलक पाई जाती। हाँ, तत्त्वार्थवातिकमें ही दो स्थानोंपर वृत्ति और भाष्यका निर्देश अवश्य मिलता है। सूत्र ५।४की व्याख्याने अकलंकदेवने नौवीं वार्तिक 'वृत्तौ पञ्चत्व वचनात्'का व्याख्यान करते हुए लिखा है शंका-वृत्तिमें कहा है कि धर्मादि द्रव्य अवस्थित हैं वे कभी भी पञ्चत्वको नहीं छोड़ते। अतः छै द्रव्य है' ऐसा कथन व्याघाती है। __ समाधान-ऐसा कथन व्याघाती नहीं है, आप वृत्तिकारके अभिप्रायको नहीं ममझे । वृत्तिकारका अभिप्राय यह है कि 'कालश्च' सूत्रके द्वारा काल द्रव्यका लक्षण अलगसे कहेंगे । अतः उसे छोड़कर यहाँ पाँच ही द्रव्योंका अधिकार है। इस लिये छै द्रव्योंके कथनमें कोई विरोध नहीं है । उक्त सूत्रके भाष्यमें, जिसकी क्रम संख्या वहाँ ५-३ है, लिखा है'अवस्थितानि च न हि कदाचित् पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति ।' वातिकमें उद्धृत वाक्य इससे बहुत कुछ मिलता हुआ है । एक तो उसमें स्पष्टीकरणके लिये 'अवस्थितानि' के धर्मादीनि पद विशेष है, दूसरे 'पञ्चत्वं' के आगेका भूतार्थत्वं च' पद संभवतया यहाँ अनावश्यक समझकर छोड़ दिया गया है। अन्यत्र इस १. 'स्यान्मतम्-वृत्तावुक्तम्-'अवस्थितानि धर्मादीनि न हि कदाचित्पञ्चत्वं व्यभिचरन्ति । ततः षड़ द्रव्याणीत्युपदेशस्य व्याघात इति, तन्न, किं कारणम् ? अभिप्रायापरिज्ञानात् । अयमभिप्रायो वृत्तिकारस्य 'कालश्च' इति पृथक् द्रव्यलक्षणं कालस्य वक्ष्यते । तदनवेक्ष्य अधिकृतानि पञ्चैव द्रव्याणीति षड्द्रव्योपदेशाविरोधः।' -त० वा०, पृ० ४४४ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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