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तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३१३ सर्वार्थसिद्धिमें केवल प्रारम्भका ही अंश पाया जाता है जब कि तत्त्वार्थ भाष्य और तत्त्वार्थवातिकमें पूर्णवर्णन प्रायः अक्षरशः समान है।
७. सूत्र ३-१८ में तत्त्वार्थ भाष्यमें तिर्यञ्चोंके भेद-प्रेभेदोंकी आयु बतलाई है । इसी सूत्रमें जिसकी क्रम संख्या वहाँ ३-३९ है, तत्त्वार्थ वार्तिकमें भी तिर्यञ्चोंके भेद-प्रभेदोंकी आयु किञ्चित् परिवर्तनके साथ बतलाई है ।
८. सूत्र ५-२५ में तत्त्वार्थ भाष्यमें 'उक्तं च' करके नीचे लिखी कारिका उद्धृत की है।
कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणः ।
एकरसगन्धवर्णों द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ अकलंक देवने तत्त्वार्थ वार्तिकमें उसी सूत्रकी व्याख्यामें इसी कारिकाके प्रत्येक पदको लेकर उसकी आलोचना की है। और एकान्त वादका निरसन करके अनेकान्तकी व्यवस्था की है।
९. तत्त्वार्थ भाष्यमें एक सूत्र है 'अनादिरादिमांश्च ॥५-४२॥' और इससे आगे है 'रूपिष्वादिमान् ॥५-४३॥ योगोपयोगी जीवेषु ॥५-४४॥' तथा इन सूत्रोंके भाष्यमें बतलाया है कि अरूपी धर्म-अधर्म आकाश और जीवमें अनादि परिणाम होता है तथा जीव यद्यपि अरूपी है फिर भी उनमें योग और उपयोग रूप परिणाम आदिमान होते हैं। ___ तत्त्वार्थ वार्तिकमें सूत्र ५-४२ की व्याख्यामे एक वार्तिक है-'स द्विविधोऽ नादिरादिमांश्च ॥३॥' इसकी व्याख्यामें अकलंक देव ने लिखा है कि 'यहाँ अन्य ऐसा कहते हैं कि धर्म-अधर्म, काल और आकाशमें अनादि परिणाम होता है और जीव तथा पुद्गलोंमें आदिमान परिणाम होता है।' ___ यद्यपि भाष्यके उक्त कथनसे इसमें थोड़ासा अन्तर है । भाष्यमें कालका नाम नहीं है तथा जीवोंमें सादि और अनादि दोनों परिणाम बतलाये हैं। फिर भी 'यहाँ अन्य ऐसा कहते हैं' से यह स्पस्ट है कि उक्त कथन उक्त सूत्रसे ही सम्बन्ध रखता है और यह कथन तत्त्वार्थ भाष्यमें पाया जाता है ।
उक्त सब सादृश्य आकस्मिक तो नहीं प्रतीत होते और फिर जब अकलंक
नाभिधानवासीारतक्षणक्षारतप्ततैलावसेचनायःकुम्भीपाकान्बरीषभर्जनयन्त्र - पीडनायःशुलशलाकाभेदनक्रकचपाटनाङ्गारदहनवाहनासूचीशाड्वलापकर्षणः तथा सिंह व्याघ्रद्वीपिश्वशृगालवृककोकमार्जार"।'
-त. भा०, ३-५ ।