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३१२ : जैनसाहित्यका इतिहास
३. तत्त्वार्थ भाष्य २-७ में सूत्रमें आगत 'आदि' शब्दकी सार्थकता बतलाते हुए लिखा है – 'अस्तित्वमन्यत्वं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं गुणवत्वसर्वगत्वमनादिकर्मसन्तान त्वं प्रदेशत्वमरूपत्वं नित्यत्वमित्येवमादयोऽप्यनादिपारिणामिकाः इत्यादि ग्रहणेन सूचिताः । अर्थात् अस्तित्व आदि भी पारिणामिक भाव है उनका सूचन आदि पदसे किया है ।
दि० सूत्रपाठ २-७ में आदिके स्थान में 'च' शब्द है । अतः तत्त्वार्थ वार्तिकमें 'च' शब्द किसलिये है इसके उत्तरमें लिखा है- 'अस्तित्वान्यत्वकर्तृत्व - भोक्तृत्व- पर्यायवत्त्वासर्वगतत्वानादिसन्त तिबन्धनबद्धत्व प्रदेशवत्वारूपत्वनित्यत्वादि समुच्चयार्थश्चशब्दः || १२ || भाष्यके वाक्यमें प्रत्येक पद अलग-अलग है, वार्तिक में समस्यन्त है तथा गुणवत्वके स्थानमें पर्यायवत्व जैसे मामूली परिवर्तन भी है । सर्वार्थसिद्धिमें केवल 'अस्तित्व नित्यत्वप्रदेशत्वादयः' का ही ग्रहण है । अतः उक्त वार्तिक भाष्यके उक्तवाक्यके ऋणी प्रतीत होती है । इस तरहके अन्य भी उदाहरण पाये जाते हैं ।
४. त० भा० २-४९ में शरीरोंमें 'कारणतो विषयतः स्वामितः प्रयोजनतः प्रमाणतः प्रदेशसंख्यातोऽवगाहनतः स्थितितोऽल्पबहुत्वत:' भेद बतलाया है । तत्त्वार्थ वार्तिक में भी उस सूत्रकी व्याख्यामें 'संज्ञा - स्वालक्षण्य-स्वकारण- स्वामित्वसामर्थ्य - प्रमाण-क्षेत्र - स्पर्शन - कालान्तर - संख्या- प्रदेश - भावाल्पबहुत्वादि' के द्वारा शरीरोंमें भेद बतलाया है । यहाँ भाष्यमें बतलाये गये भेदके कारणों में वृद्धि कर दी गई है ।
५ सूत्र ३-१ के भाष्य और वार्तिकमें 'सप्त' पद भूमियोंकी संख्या निर्धारित करनेके लिये दिया है ऐसा बतलाया है । तथा भाष्य में लिखा है'अपि च तत्रान्तरीया असंख्येयेषु लोकधातुष्वसख्येयाः पृथिवीप्रस्तारा इत्यध्यवसिताः ।' वार्तिकमें भी लिखा है- 'सन्ति च केचित्तन्त्रान्तरीया 'अनन्तेषु लोकधातुष्वनन्ताः पृथिवीप्रस्तारा:' इत्यध्यवसिताः ।'
६. सूत्र ३-५ की व्याख्यामें नारकियोंको असुर कुमारोंके द्वारा दिये जानेवाले दुःखोंके प्रकारोंका चित्रण 'वार्तिक और भाष्यमें प्रायः अक्षरशः समान है । १. 'सुतप्तायोरसपायन - निष्टप्तायस्तम्भालिङ्गन - कूटशाल्मल्यारोहणावतरणायोघनाभिघातवासिक्षु रतक्षण-क्षरण- तप्ततैलावसेनायः कुम्भीपाकाम्बरीषभर्जनयंत्र - पीलनैः शूलशलाकाव्यघन-क्रकचपाटनाऽङ्गारधाम्निवाहन - सूचीशाड्वलावकर्षणैः व्याघ्रक्षद्वीपिश्वशृगालवृककोक ...। - त० वा० पृ० १६५-१६६ । ‘तप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तम्भालिङ्गन - कूटशाल्मल्यग्रारोपणावतरणायोष