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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३११ ७. दि० सूत्रपाठमें 'बन्धेऽधिको पारिणामिको ॥५-३६॥ पाठ है। और भाष्यमें 'बन्ध समाधिको परिणामिको ॥५-३६॥ पाठ है। त० वा० में सूत्र ५-३५ की व्याख्यामें 'बन्धे समाधिको पारिणामिको इत्यपरे सूत्रं पठन्ति' लिखकर स्पष्ट रूपसे भाष्यमान्य सूत्र पाठका निर्देश किया है और उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है। ८. दि० सूत्रपाठमें 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥६-१७॥ और 'स्वभाव- . मार्दवं च ॥६-१८॥' ये दो सूत्र है ६-१८ में दोनों सत्रोंको मिलाकर 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्य' इसप्रकार एक सूत्र करने की बात उठाई है । दूसरे सूत्रपाठमें दोनोंको मिलाकर एक ही सूत्र है । किन्तु-स्वभावमार्दवावं मानुषस्य' ऐसा पाठ है। अतः यह निश्चित रूपमें नहीं कहा जा सकता कि यह पाठान्तर दूसरे सूत्रपाठसे ही सम्बद्ध है अथवा किसी तीसरे सूत्रपाठसे सम्बद्ध है । ९. प्रथम सूत्रपाठमें 'आज्ञापाय"धर्म्यम् ॥९-३६॥ ऐसा सूत्र है । दूसरे सूत्रपाठमें 'धर्ममप्रमत्तसंयतस्य' ऐसा पाठ है । तथा इससे आगे 'उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' ॥९-२८॥ अतिरिक्त सूत्र है जो दि० सूत्रपाठमें नहीं है। त० वा० में सूत्र ९-३६ की व्याख्यामें 'धर्म्यमप्रमत्तसंयतस्य' और 'उपशान्तक्षीणकयाषययोश्च' इन दोनोंका उल्लेख करके उनका निरसन किया है। उक्त उद्धरणोंसे यह निर्विवाद है कि अकलंकदेवके सामने दूसरा सूत्रपाठ भी था। संभव है कोई तीसरा सूत्रपाठ भी हो। किन्तु जिस पर भाष्यकी रचना हुई है वह सूत्रपाठ तो उनके सामने अवश्य था। अब प्रश्न रह जाता है तत्त्वार्थ भाष्यका । अतः उसके सम्बन्धमें कुछ तथ्य उपस्थित किये जाते हैं । १. त० वा० में सूत्र १-१ के अन्तर्गत दो वार्तिक इस प्रकार हैं-'एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् ॥६९॥ उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः ॥७०॥' सूत्र १-१ के भाष्यमें भी ये दोनों वाक्य इसी प्रकार हैं। प्रथम वाक्यमें थोड़ा अन्तर है-एषां च पूर्वलाभे भजनीयमुत्तरम् ।' २. त० वा० में सूत्र १-३० में एक वार्तिक है-'नाभावोऽभिभूतत्वादहनि नक्षत्रवत् ॥८॥ इसमें शंका की गई है कि केवलीके क्षायोपशमिक ज्ञानोंका अभाव नहीं होता। बल्कि जैसे दिनमें सूर्यके तेजसे नक्षत्र अभिभूत हो जाते हैं वैसे ही केवलज्ञानके तेजसे क्षायोपशमिक ज्ञान भी अभिभूत हो जाते हैं । 'तत्त्वार्थ भाष्य सू० १।३१ में भी किन्हीं आचार्यों का उक्त मत दिया है। लिखा है'केचिदाचार्या व्याचक्षते नाभावः किन्तु तदभिभूतत्वादकिञ्चित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत् ।' आगे सूर्यके तेजसे अन्य प्रकाशोंके अभिभूत होनेका दृष्टान्त दिया है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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