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३१० : जैनसाहित्यका इतिहासं
इस तरह तत्त्वार्थवार्तिक दार्शनिक तथा आगमिक दोनों ही दृष्टियोंसे अपना विशिष्ट स्थान रखता है ।
तत्त्वार्थ भाष्य और तत्त्वार्थवार्तिक
यह तो स्पष्ट ही है कि अकलंक देवने सर्वार्थ सिद्धिको आधार बनाकर तत्वार्थवार्तिककी रचना की है । किन्तु तत्त्वार्थ भाष्य उनके सामने था या नहीं, और उन्होंने उसका भी उपयोग किया है या नहीं, इस विषय में विवाद है । अतः यहाँ उसीपर प्रकाश डाला जाता है ।
यह तो स्पष्ट है कि अकलंक देवके सामने तत्त्वार्थ सूत्रका एक दूसरा सूत्रपाठ भी था और वह प्रायः वही होना चाहिये, जिसपर भाष्य रचा गया है । यह बात नीचेके विवरणसे स्पष्ट है ।
१. दि० सूत्रपाठ में 'भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् ' ॥१-२१॥ पाठ है और भा० सूत्रपाठ में 'भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ' ॥१-२२॥ पाठ है । उक्त सूत्रकी व्याख्यामें अकलंक देवने यह प्रश्न उठाया है कि 'नारक' शब्दका पूर्वनिपात होना चाहिये । यह प्रश्न दूसरे सूत्र पाठको लक्ष्य में रखकर ही उठाया गया है ऐसा लगता है ।
२. दि० सूत्रपाठ में 'जीवभ व्याभव्यत्वानि च ॥२- ७॥' पाठ है और दूसरे में 'जीवभव्यभव्यात्वादीनि च' पाठ है । उक्त सूत्रकी व्याख्या में अकलंकदेवने यह शंका उठाई है कि इसमें 'आदि' ग्रहण करना चाहिये ।
३. दि० सूत्रपाठ में 'जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ।। २-३३ ।। ' ऐसा पाठ है | दूसरे में पोत स्थानमें 'पोतजाना' पाठ है । उक्त सूत्रकी व्याख्यामें लिखा है 'केचित् पोतजा इति पठन्ति' अर्थात् कोई-कोई 'पोतज' ऐसा पढ़ते हैं ।
४. दि० सूत्रपाठ में 'रत्नशर्करा 'सप्ताऽधोऽधः पृथुतराः' पाठ है। कोई यहाँ 'पृथतरा:' ऐसा पढ़ते हैं,
सप्ताधोऽधः ॥ ३- १ || ' पाठ है । दूसरेमें अकलंकदेवने 'केचिदत्र पृथुतरा इति पठन्ति ' ऐसा लिखकर उसका निराकरण किया है ।
५. दि० सूत्रपाठ है 'शेषाः 'प्रवीचाराः ॥४-८॥' दूसरे सूत्रपाठ में 'प्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः' पाठ है । तत्वार्थवार्तिक में 'द्वयोर्द्वयोः' कहना चाहिये ऐसा सुभाव देकर उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है ।
६. दि० सूत्रपाठ में 'द्रव्याणि ॥५- २||' जीवाश्च ॥ ५ - ३ ||' ये दो सूत्र हैं और दूसरे सूत्रपाठ दोनों को मिलकर एक सूत्र है। सूत्र ५ - ३ की व्याख्यामें तः वा० में दोनों सूत्रोंको मिलाकर एक कर देना चाहिए, ऐसी शंका की गई है ।
१. इस विवाद के लिये देखिये – अनेकान्त, वर्ष ३, पृ० ३०४, ३०७, ६२३ और ७२९ आदि ।