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३०४ : जैनसाहित्यका इतिहास
सारांश यह है कि तत्त्वार्थवार्तिक एक तरहसे एक आकर ग्रन्थ जैसा है। इसीसे पं० सुखलालजीने अपनी तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना (पृ० ७८-७९ ) में उसके सम्बन्धमें लिखा है-'राजवातिक और श्लोकवातिकके इतिहासज्ञ अभ्यासी को मालूम पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तानमें जो दार्शनिक विधा और स्पर्धाका समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसीका प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रन्थोंमें है । प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैन दर्शनका प्रामाणिक अभ्यास करनेके पर्याप्त साधन है, परन्तु इनमेंसे राजवातिक गद्य, सरल और विस्तृत होनेसे तत्त्वार्थके सम्पूर्ण टीका ग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूरी करता है। ये दो वातिक यदि नहीं होते तो दसवीं शताब्दी तकके दिगम्बर साहित्यमें जो विशिष्टता आई है और उसकी जो प्रतिष्ठा बंधी है वह निश्चयसे अधूरी ही रहती। वे दो वार्तिक साम्प्रदायिक होनेपर भी अनेक दृष्टियोंसे भारतीय दार्शनिक साहित्यमें विशिष्ट स्थान प्राप्त करें ऐसी योग्यता रखते हैं। इनका अवलोकन बौद्ध और वैदिक परम्पराके अनेक विषयोंपर तथा अनेक ग्रन्थोंपर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है। ___ आधार-तत्त्वार्थ वार्तिकका मूल आधार पूज्यपादकी सर्वार्थ सिद्धि है। सर्वार्थ सिद्धिकी वाक्य रचना सूत्र जैसी सन्तुलित और परिमित है। अतः अकलंक देवने उसके प्रायः सभी विशेष वाक्योंको अपने बार्तिक बना डाला है । और उनका व्याख्यान किया है। आवश्यकतानुसार नये वार्तिकों की तो रचना की ही है किन्तु सर्वार्थसिद्धिका उपयोग पूरी तरहसे किया गया है । और यदि कहा जाये कि तत्त्वार्थ वार्तिकमें लगभग समग्र सर्वार्थसिद्धि आ गयी है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। किन्तु सर्वार्थसिद्धिका विशिष्ट अभ्यासी भी यदि तत्त्वार्थ वार्तिकको पढ़े तो उसे भी यह बोध नहीं हो सकता कि मैं किसी पठित विषय को ही पढ़ रहा हूँ। जैसे बीज वृक्षमें समा जाता है वैसे ही सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवातिकमें समा गई। उसको आधार बनाकर अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिक रूपी भव्य प्रासादका निर्माण किया है, जिसमें आधारकी प्राचीनता होते हुए भी सब कुछ नवीन ही नवीन दृष्टिगोचर होता है; क्योंकि सर्वार्थसिद्धिकारने जिन विषयोंकी चर्चा नहीं की थी, और जो विषय सर्वार्थसिद्धिकारके पश्चात् दार्शनिक क्षेत्रमें अवतरित हुए उन सभीकी संयोजना तत्त्वार्थवार्तिकमें की गई है ।
चचित विषय-तत्त्वार्थवार्तिकमें जिन विशेष विषयोंकी चर्चा अकलंकदेवने की है उनका दिग्दर्शन कराये बिना ग्रन्थका दार्शनिक रूप अधूरा रह जाता है। अतः संक्षेपमें उनका दिग्दर्शन कराया जाता है।
१. प्रथम अध्यायके प्रथम सूत्रके व्याख्यानमें अकलंकदेवने कर्ता और करण के भेदाभेदकी चर्चा उठाई है। ज्ञान शब्दकी 'जानाति इति ज्ञानम्' और