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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३०५ ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्' जो जानता है वह ज्ञान है और जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान है, इन दो व्युलतियों को लेकर वह शंका को गई है । कर्ता करणसे भिन्न होता है जैसे देवदत्त कुठारसे भिन्न है। अतः आत्मा ज्ञानसे भिन्न है। इस चर्चाको उठाकर अन्तमें ज्ञानसे आत्माको भिन्न और अभिन्न सिद्ध किया गया है। सर्वार्थसिद्धिमें भी पूज्यपाद स्वामीने इस शंकाको उठाया है और उसका समाषान अनेकान्तवादी दृष्टिकोणसे किया है। अकलंकदेवने उसीको खूब विस्तार दिया है। २. इसी प्रथम सूत्रके अन्तर्गत दूसरे आह्निकमें यह चर्चा उठाई है कि सब दर्शनोंमें ज्ञानसे ही मोक्ष माना गया है अतः मोक्ष मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूप नहीं हो सकता। और इसके समर्थन में सांख्य, वैशेषिक, न्याय और बौद्धदर्शनके मत दिये गये हैं। सांख्यमतके समर्थनमें 'धर्मेण गमनमूध्वं, इत्यादि सांख्यकारिका ४४, व्याख्याके साथ दी गई है । वैशेषिक मतके समर्थनमें 'इच्छाद्वेषपूर्विका धर्माधर्मप्रवृत्तिः ।६।२।१४ । इस वै० शे० सूत्रको लिया गया है । न्यायदर्शनके समर्थनमें दुःख जन्म प्रवृति इत्यादि न्याय सूत्र १।१।२ को व्याख्या पूर्वक उद्धृत किया गया है । और बौद्ध दर्शनके समर्थनमें प्रसिद्ध द्वादशांग प्रतीत्य समुत्पादका विवरण दिया है । ३. सूत्र १-५ के व्याख्यानमें पातञ्जल महाभाष्यके 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमें संप्रत्ययो भवति ।१।१।२२ । तथा 'गौणमुख्ययोमुख्य संप्रत्ययः' ८।३।२२। इन दोनों कयनोंका निरास करके उनमें अनेकान्त दृष्टिको मान्य किया है। पात० महा० का उपयोग तत्त्वार्थवातिकमें अनेक स्थानों पर किया गया है और उससे अनेक उदाहरण दिये गये हैं । ४. सूत्र १-६ में सप्तभंगीका विवेचन करके अनेकान्तमें अनेकान्तको सुघटित किया है तथा अनेकान्त छलमात्र है और अनेकान्तवाद संशयका हेतु है, इन आरोपोंका निराकरण किया है। तथा 'एकवस्तु अनेक धर्मात्मक है' इस बातको लौकिक व शास्त्रीय उदाहरणोंसे सिद्ध करते हुए सर्व वादियोंकी इस विषयमें सहमति सप्रमाण बतलाई है। ५. सूत्र १-९ के अन्तर्गत 'एकान्तवादियोंमें ज्ञानका करण कर्तृ आदि साधन नहीं बन सकता' इस बातको विस्तारसे सिद्ध किया है। एकान्तवादियोंको दो भागोंमें विभाजित किया है-एक, जो आत्माको नहीं मानते और दूसरे, १. त० वा०, पृ. २४, ३१, ३२, ३३, १२८, १८७, २१२, २३७, ४६२, मादि । २०
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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