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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३०३ किन्तु अकलंकदेवने न्यायवातिककी तरह ही प्रत्येक अध्यायको आह्निकोंमें विभक्त कर दिया है। ____ अकलङ्कदेवके ग्रन्थ दो प्रकारके हैं-टीका ग्रन्थ और स्वतंत्र प्रकरण । टीकाग्रन्थोंमें तत्त्वार्थवातिक और अष्ट शती हैं । तथा स्वतंत्र ग्रन्थोंमें लघीयस्त्रय सविवृत्ति, न्यायविनिश्चय सविवृत्ति, सिद्धिविनिश्चय सविवृत्ति और प्रमाण संग्रह मुख्य हैं । ये सभी स्वतंत्र ग्रन्थ संक्षिप्त होनेपर भी बहुत गम्भीर, और अर्थबहुल है । अकलंकदेवकी प्रौढ़ ताकिक शैलीके साक्षात् दर्शन तो उन्हीं में होते हैं । ___ तत्त्वार्थसूत्रका विषय सैद्धान्तिक और आगमिक है फलतः तत्त्वार्थवातिकमें भी उसी विषयका प्राधान्य होना स्वाभाविक है । किन्तु अकलंकदेव सिद्धान्त और आगमके मर्मज्ञ होते हुए भी मुख्य रूपसे दार्शनिक थे। अतः तत्त्वार्थवार्तिकको शैलीमें दार्शनिकताकी छाया रहना स्वाभाविक है । तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम तथा पञ्चम अध्यायमें क्रमसे ज्ञानकी और द्रव्योंकी चर्चा है और ये ही दोनों चर्चाएं दर्शनशास्त्रके प्रधान अंगभूत हैं । अतः अकलंकदेवने इन दोनों अध्यायोंमें अनेक दार्शनिक विषयोंकी समीक्षा की है । दर्शनशास्त्रके अभ्यासियोंके लिए ये दोनों अध्याय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इनमें जो दार्शनिक चर्चाएं हैं वे इससे पूर्वके जैनसाहित्यमें उपलब्ध नहीं होती। जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है और आचार्य समन्तभद्र अनेकान्त वादके सबसे बड़े व्यवस्थापक हुए हैं । उन्होंने आप्तमीमांसाके द्वारा उसीकी व्यवस्था की है। उसी आप्तमीमांसापर अकलंकदेवने अपना अष्टशती भाष्य रचा था। अकलंकदेव समन्तभद्रके सुयोग्य उत्तराधिकारी थे। उन्होंने तत्त्वार्थवातिकके द्वारा अनेकान्तवादको स्थापना ही मुख्य रूपसे की है। जितने भी दार्शनिक मन्तव्य उसमें चचित हैं सबका समाधान अनेकान्तके द्वारा किया गया है। इसीलिए दार्शनिक विषयोंसे सम्बद्ध सूत्रोंके व्याख्यानमें 'अनेकान्तात्' वार्तिक अवश्य पाया जाता है। इसके अवलोकनसे ऐसा स्पष्ट रूपसे प्रतीत होता है कि उनकी इस रचनाका एक प्रधान उद्देश आगमिक शैलीके ग्रन्थ द्वारा भी अनेकान्तकी व्यवस्था को अवतरित करना था । जिन अध्यायोंमें दार्शनिकताकी गन्ध भी नहीं हैं उनमें भी यथास्थान अनेकान्तवादको चर्चाको अवतरित किया गया है । __किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि आगमिक विषयोंकी उन्होंने उपेक्षा की है। तीसरे और चतुर्थ अध्यायोंमें लोकानुयोगसे सम्बद्ध विषयोंका जो वर्णन यथास्थान कियागया है, वह तिलोयपण्णत्ति जैसे लोकानुयोगविषयक प्राचीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थसे भी अपनी विशेषता रखता है जिसका दिग्दर्शन तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थके अन्तर्गत कराया जा चुका है। इसी तरह अन्य भी कई सैद्धान्तिक विषयोंकी महत्त्वपूर्ण चर्चा यथास्थान की गई है ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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