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________________ ३०२ : जैनसाहित्यका इतिहास नाम-इस ग्रन्थके आद्य मंगल श्लोकके चतुर्थ चरणमें 'वक्ष्ये तत्त्वार्थवार्तिकम्' लिखकर अकलंकदेवने इस ग्रन्थको तत्त्वार्थवार्तिक नाम दिया है । यह नाम सार्थक है । चूंकि यह तत्त्वार्थ सूत्रका व्याख्या ग्रन्थ है अतः उसको तत्त्वार्थ नाम दिया जाना उचित ही है। तथा उसकी रचना वार्तिकोंके रूपमें होनेसे उसे तत्त्वार्थवार्तिक संज्ञा दी गई है । ये वार्तिक श्लोकात्मक भी होते हैं और गद्यात्मक भी होते हैं । कुमारिलका मीमांसा श्लोकवार्तिक और धर्मकीर्तिका प्रमाणवातिक श्लोकोंमें रचा गया है । किन्तु न्यायदर्शनके मूत्रोंपर उद्योतकरने जो न्यायवार्तिक रचा है वह गद्यात्मक है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उद्योतकरने न्यायसूत्रोंपर न्यायवार्तिक रचा वैसे ही अकलंकदेवने तत्त्वार्थके सूत्रोंपर तत्त्वार्थवार्तिककी रचना की। ___तत्त्वार्थवार्तिकको तत्त्वार्थराजवार्तिक भी कहते हैं। और उसका संक्षिप्त नाम राजवातिक ही अधिक प्रचलित पाया जाता है । विक्रमकी १५वीं शताब्दीके ग्रन्थकार धर्मभूषणने राजवातिक' नामसे उसका उल्लेख किया है। तथा तत्त्वार्थराजवातिक भाष्य नामसे भी उसका उल्लेख किया है । इसका कारण यह है कि वार्तिक तो सूत्र रूप हैं और उन वार्तिकोंका व्याख्यान भी अकलंकदेवने स्वयं किया है। अतः धर्मभूषणजीने वातिकको उद्धृत करते हुए तो राजवार्तिक नामका उल्लेख किया है और उसकी व्याख्याको उद्धृत करते समय तत्त्वार्थराजवार्तिक भाष्य नामका उल्लेख किया है । विक्रमकी नौवीं शताब्दीके ग्रन्थकार वीरसेन स्वामीने तो अपनी 'धवला और जयधवला' टीकामें केवल तत्त्वार्थ भाष्य नामसे ही तत्त्वार्थवातिकका उल्लेख किया है। . रचनाशैली तथा महत्त्व-अकलंकदेवने अपना तत्त्वार्थवातिक उद्योतकरके न्यायवातिकको शैलीसे लिखा है। इसमें वार्तिक जुदे हैं और उनकी व्याख्या जुदी है। इसीसे इसकी पुष्पिकाओंमें इसे 'तत्त्वार्थवार्तिक व्याख्यानालंकार संज्ञा दी गई है । उद्योतकरने भी अपनी वातिकोंका व्याख्यान स्वयं किया है । मूलसूत्र ग्रन्थ दस अध्यायोंमें विभक्त है अतः तत्त्वार्थवार्तिकमें भी दस ही अध्याय हैं । १. 'यद् राजवातिकम्।'-न्या० दी०, पृ० ३१ । २. 'उक्तं तत्त्वार्थ भाष्ये'-षटख०, पु० १, पृ० १०३ । ३. 'प्रमाण प्रकाशितार्थ विशेष प्ररूपको नयः' अयं वाक्यनयः तत्त्वार्थ भाष्यगतः। -क० पा०, भा० १, पृ० २१० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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