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________________ तत्त्वार्थविषयक टोका-साहित्य : ३०१ जैसा हम आगे लिखेंगे सिद्धसेन गणिने अपनी तत्त्वार्थ टीकामें उनके तत्त्वार्थ वातिकका पूरा उपयोग किया है। अकलंकदेव भी धर्मकीतिके पश्चात् हुए है। अतः इतना निश्चित है कि सिद्धसेन गणिकी तरह वे भी सातवीं शताब्दीसे पहले नहीं हुए। और इसलिये अकलंकदेव और सिद्धसेनगणिके मध्यमें दीर्घकालका अन्तराल होना भी सम्भव नहीं है । अधिक सम्भव तो यही प्रतीत होता है कि अकलंक सातवीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें हुए हैं तो सिद्धसेन आठवीं शताब्दीके मध्यमें । अतः जिस तत्त्वार्थभाष्य पर सिद्धसेनने टीका लिखी वह अकलंकदेवके समयमें अवश्य वर्तमान होना चाहिये। क्योंकि सिद्धसेनकी टीकामें दिये गये मतभेदोंसे यह प्रकट होता है कि उनके सामने तत्त्वार्थभाष्यकी अन्य टीका टिप्पण भी वर्तमान थे। अतः तत्त्वार्थभाष्य सातवीं शताब्दीमें अवश्य रचा जा चुका था। अपने उक्त कथनके समर्थनमें एक प्रमाण हमें और भी उपलब्ध हुआ हैमल्लवादीके नयचक्र पर सिंहसूर क्षमाश्रमणकी न्यायागमानुसारिणीवृत्ति उपलब्ध है। उसमें तत्त्वार्थभाष्यका एक वाक्य उद्धृत है। सिंहसूर सिद्धसेन गणिके दादागुरु थे और उनका समय विक्रमकी सातवीं शताब्दीका मध्यकाल माना जाता है। अकलंक देव और उनका तत्त्वार्थ वार्तिक ___ जैन परम्परामें भट्टाकलंक देव बड़े प्रखर तार्किक और दार्शनिक हुए हैं । इन्हें जैनन्यायका यदि पिता कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं है। बौद्ध दर्शनमें धर्म कीर्तिको जो स्थान प्राप्त है वही स्थान जैनदर्शनमें अकलंकका है । अतः दर्शन और न्यायके प्रकरणमें इनके सम्बन्ध विस्तारसे प्रकाश डाला जायेगा। इनके द्वारा रचित प्रायः सभी ग्रन्थ जैनदर्शन और जैनन्यायसे सम्बन्ध रखते हैं और उन्हें इन विषयोंका आकर ग्रन्थ कहा जा सकता है। अतः उन सब ग्रन्थोंका परिचयादि भी उसी प्रकरणमें देना उचित होगा। उन्हीं ग्रन्थोंमें तत्त्वार्थ वार्तिक नामक ग्रन्थ भी है, जो तत्त्वार्थ सूत्रका ही व्याख्या ग्रन्थ है। यद्यपि उसकी शैली दार्शनिकतासे परिपूर्ण है तथापि उसमें आगमिक चर्चाएं होनेसे तत्त्वार्थसे सम्बन्ध होनेके कारण उसे इस प्रकरणमें रखा गया है। १. 'कश्चिदेवं भाष्यमेतद् व्याख्यायि'-पृ० २९ । २. 'लौकिकसम उपचारः प्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार' इति वचनात् । ३. त० भा० १-३५ । -द्वा० न० च०, पृ० ९५ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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