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________________ ३०० : जैनसाहित्यका इतिहास भाष्यका रचनाकाल अब हम भाष्यके रचनाकाल पर विचार करेंगे । १. भाष्यपर दो टीकाएं उपलब्ध हैं और दोनों प्रकाशित भी हो चुकी हैं। उनमेंसे एक टीका बड़ी है और उसके रचयिता सिद्धसेन गणि हैं । और दूसरी छोटी टीकाके रचयिता हरिभद्र है। श्वेताम्बर परम्परामें हरिभद्र नामके कई आचार्य हो गये हैं जिनमें सैकड़ों ग्रन्थोंके रचयिता याकिनीसुनु हरिभद्र प्रमुख हैं। इस दूसरी वृत्तिका रचयिता इन्हींको माना जाता है। पं० सुखलालजीने भी तत्त्वार्थसूत्रकी अपनी प्रस्तावना (पृ० ४३) में यही बात लिखी है । उसी आधार पर हमने दूसरी वृत्तिको देखा तो हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि दोनों वृत्तियोंके अनेक स्थल शब्दशः मिलते हैं। हरिभद्रकी वृत्ति देखनेसे पहले हम सिद्धसेन की वृत्ति देख चुके थे और अकलंकदेवके तत्त्वार्थवार्तिकके साथ मिलान करके इस निर्णय पर भी पहुंच गये थे कि सिद्धसेनने अकलंकदेवकी तत्त्वार्थवातिकको न केवल देखा है किन्तु उसका अनुसरण भी किया है। ऐसे स्थलोंको हरिभद्रकी वृत्ति में भी ज्यों का त्यों देखकर पहले तो हमने यही समझा कि हरिभद्रकी वृत्तिका अनुसरण सिद्धसेनने किया है और हरिभद्रने तत्त्वार्थवार्तिकका अनुसरण किया है। किन्तु अनुसन्धान करने पर हमें ज्ञात हुआ कि छोटी वृत्ति हरिभद्र नामके किसी अन्य आचार्यकी कृति है और उन्होंने सिद्धसेन गणिकी वृत्तिको सामने रखकर अपनी वृत्ति रची है। अतः भाष्यपर उपलब्ध टीकाओंमें सबसे प्राचीन टीका सिद्धसेन गणिकी है। सिद्धसेनने अपनी टीकाके अन्तमें अपनी प्रशस्ति भी दी है। उसके अनुसार दिन्नगणिके शिष्य सिंहसूर, सिंहसूरके शिष्य भास्वामी और भास्वामीके शिष्य सिद्धसेन गणि थे। सिंहसूरने नयचक्र पर वृत्ति रची है। पं० सुखलालजीने (त० सू० की प्रस्ता० पृ० ४२) लिखा है कि सिंहसूर विक्रमकी सातवीं शताब्दीके मध्यमें अवश्य विद्यमान थे। तथा सिद्धसेन गणिने अपनी टीकामें बौद्ध नैयायिक धर्मकीतिका नामोल्लेख किया है। अतः यह निश्चित है कि सिद्धसेन विक्रमको सातवीं शताब्दीसे पहले नहीं हुए। तथा नववीं शताब्दीके विद्वान शीलाङ्कने आचारांग टीकामें गन्धहस्ती नामसे उनका उल्लेख किया है ऐसा पं० सुखलालजीने (त० सू० प्रस्ता० ४२) लिखा है । अतः नववीं शताब्दीके पश्चात् नहीं हुए यह भी निश्चित है। उक्त दोनों आधारोंपर यदि उनका समय मोटेतौर पर आठवीं शताब्दी मान लिया जाये तो यह निश्चित है कि उस समय तत्त्वार्थ भाष्य वर्तमान था। २. यह भी निश्चित है कि अकलंकदेव सिद्धसेन गणिके पूर्वज थे, क्योंकि
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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