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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : २९९ इससे पता चलता है कि भाष्में ९६ अन्तर्वीप बतलाये थे, जैसा कि दिगम्बर परम्परामें मान्य हैं। किन्तु अब जो मुद्रित भाष्य हैं, यहाँ तक कि सिद्धसेनकी टीकामें जो भाष्य मुद्रित है उसमें भी ५६ ही अन्तर्दीप बतलाये गये हैं। अतः प्रतीत होता है कि गणि जी की टीकाके पश्चात् भाष्यसे ९६ वाला पाठ हटाकर उसके स्थानमें ५६ वाला पाठ रख दिया है । मूल भाष्यमें ९६ ही अन्तर्वीप बतलाये थे। ६. सूत्र ४-१४ के भाष्यमें भाष्यकारने लिखा है कि सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्र तिर्यग्लोकमें हैं और शेष ज्योतिष्कदेव ऊर्ध्वलोकमें रहते हैं। ___इसपर सिद्धसेन गणिने लिखा है। आचार्य ही (भाष्यकार) इसे जानते है, आगममें तो ऐसा कथन नहीं है । सभी ज्योतिष्कदेव तिर्यग्लोकमें ही रहते हैं। ७. 'सूत्र ८-३२ के भाष्य में दूसरे संहननका नाम अर्धवज्रर्षभनाराच' बतलाया है। इसपर गणिजीने लिखा है कि यह भाष्यकारका मत है। कर्म प्रकृति ग्रन्थ में तो वज्रनाराच नाम ही है। इसमें क्या तत्त्व है यह तो पूर्ण श्रुतधर ही जानते हैं। ८. सूत्र ९-६ के भाष्यमें भाष्यकारने बारह भिक्षुप्रतिमाओं में से आठवीं आदि प्रतिमाओंको सप्तरात्रिकी आदि बतलाया है। गणिजीने उससे कुपित होकर लिखा है-यह भाष्य परमागमके वचनोंके अनुसार नहीं है। यह पागलका प्रलाप है वाचक तो पूर्ववित् थे वह इस प्रकार आर्षविरुद्ध कैसे लिख सकते हैं।' इस प्रकार भाष्यके अनेक प्रसंग श्वेताम्बरीय आगमोंके भी विरुद्ध हैं। और इस लिये सिद्धसेन गणिने उन्हें वाचक उमास्वातिका नहीं माना है। किन्तु हमें तो सारा भाष्य ही सूत्रकारकृत प्रतीत नहीं होता, जैसा कि हम पहले लिख आये हैं। १. 'शेषास्तु प्रकीर्णतारका ऊर्ध्वलोके भवन्ति इति । आचार्य एवेदमवगच्छति, न त्वार्षमेवमवस्थितं, सर्वज्योतिष्काणां तिर्यग्लोकव्यवस्थानादिति ।' वही, पृ० २८८ । २. 'अर्धवज्रर्षभनाराचनाम तु वज्रर्षभनाराचानामधं किल सर्वेषां वज्रस्या'... इति भाष्यकारमतम् । कर्मप्रकृतिग्रन्थेषु वज्रनाराचनामैवं पट्टहीनं पठितं, किमत्र तत्त्वमिति सम्पूर्णानुयोगधारिणः क्वचिद् संविद्रते । 'वही, भा० पृ० १५४ । ३. 'नेदं पारमर्षप्रवचनानुसारि भाष्यं, किं तर्हि ? प्रमत्तगीतमेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवंविधमार्षविसंवादि निबन्धीयात् ।'-सि० ग० टी०, भा० २, पृ० २०६।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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