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२९८ : जैनसाहित्यका इतिहास किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायमें नवतत्त्व ही बतलाये हैं । सिद्धसेनगणिने पूज्यपाद और अकलंककी तरह बन्धमें पुण्य और पापका अन्तभाव मानकर उसपर कोई आपत्ति नहीं उठाई है। दिगम्बर परम्परामें कुन्दकुन्दने नो पदार्थोंकी तरह सात तत्त्व भी बतलाये हैं यह हम पहले ही लिख आये हैं ।
२. भाष्य मान्यपाठमें सूत्र ( १-३४ ) के द्वारा पहले नयोंके पाँच भेद बतलाये हैं फिर सूत्र (१-३५)में पञ्चम शब्द नयके तीन भेद बतलाये हैं । भाष्यमें उन तीन भेदोका नाम साम्प्रत, समभिरूढ़, और एवंभूत बतलाया है। किन्तु साम्प्रत नामका नय किसी भी जैन ग्रन्थमें नहीं मिलता। गणिजी ने इसपर कोई आपत्ति नहीं की है।
३. सूत्र २-१७के भाष्यमें उपकरणेन्द्रियके दो भेद बतलाये हैं। इसपर आपत्ति करते हुए टीकाकार गणिजी ने कहा है कि आगममें उपकरणके अन्तर और बाह्य भेद नहीं बतलाये हैं । यह तो आचार्य (भाष्यकारका) ही कोई सम्प्रदाय है ।
४. सूत्र ३-९के भाष्यमें भाष्यकारने मेरु पर्वतका वर्णन करते हुए भद्रशाल वनसे पण्डुकवन तक मेरुकी ऊँचाई तथा हानिका कथन किया है । उसपर आपत्ति करते हुए टोकाकार ने लिखा है कि आचार्य ने जो यह हानि बतलाई है वह गणितके अनुसार घटित नहीं होती। गणित शास्त्रवेत्ता विद्वान इस हानिको आगमके अनुसार अन्य प्रकारसे बतलाते हैं ।
५. सूत्र ३-१५ की टीकामें सिद्धसेन गणि ने लिखा है कि किन्हीं दुष्टों ने अन्तर्वीप सम्बन्धी भाष्य नष्ट कर दिया, इसीसे भाष्यमें ९६ अन्तर्वीप पाये जाते हैं । किन्तु यह कथन आर्षविरुद्ध है क्यों कि जीवाभिगम आदिमें छप्पन अन्तर्वीप कहे हैं । वाचक मुख्य सूत्रका उल्लंघन करके ऐसा नहीं कह सकते, ऐसा करना असंभव है, अतः किन्हीं सिद्धान्त विरोधियों ने उसे नष्ट कर दिया।' १. 'आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तबहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्र
दाय इति ।' वही-पृ० १६६ । २. 'एषा च परिहाणिराचार्योक्ता न मनागपि गणितप्रक्रियया सङ्गच्छते........
गणितशास्त्रविदो हि परिहाणिमन्यथा वर्णयन्त्यार्षानुसारिणः ।' वही, पृ०
२५२ । ३. 'एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि विग्धैर्येन षण्ण
वतिरन्तरद्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्ष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्, नापि वाचकमुख्याः सूत्रोल्लङ्घनेनाभिदपत्यसम्भाव्यमानत्वात् तस्मात् सैद्धान्तिकपाशविनाशितमिदमिति ।'-वही, पु० २६७ ।