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________________ तत्त्वार्थविषयक टोका-साहित्य : २९७ है । इसके सम्बन्धमें पं० सुखलालजीने लिखा' है-'जान पड़ता है सबसे पहले आर्यरक्षितने, जो जन्मसे ही ब्राह्मण थे और वैदिक शास्त्रोंका अभ्यास करनेके पश्चात् ही जैन साधु हुए थे अपने ग्रन्थ अनुयोगद्वारमें (पृ० २११) प्रत्यक्ष अनुमानादि चार प्रमाणोंका विभाग जो गौतम दर्शन (न्यायसू० १-१-३) में प्रसिद्ध है उसको दाखिल किया।' प्रमाण चतुष्टय विभाग असलमें न्यायदर्शनका ही है इस लिए भाष्यकारने उसे 'नयवादान्तरेण' कहा है। २. सूत्र २-४३ के भाष्यमें भाष्यकारने लिखा है कि-'किन्हींके मतसे जीवके साथ एक कार्मण शरीरका ही अनादि सम्बन्ध है । तैजस तो लब्ध्यपेक्ष होता है और वह तैजस लब्धि सबके नहीं होती, किसीके ही होती है।' इसपर सिद्धसेन गणिको टीकाके अवलोकनसे प्रकट होता है कि श्वेताम्बर परम्परामें इस सम्बन्धमें मतभेद है । यद्यपि सूत्रकारने सभी संसारी जीवोंके कार्मण और तैजस दोनों शरीरोंका अनादि सम्बन्ध बतलाया है ओर भाष्यकारने भी तदनुसार ही भाष्यमें कथन किया है, तथापि जो पक्ष तैजसका सब जीवोंके अनादि सम्बन्ध नहीं मानता, वह सूत्र और उसके भाष्यका व्याख्यान भी अपने अनुकूल ही करता है । दिगम्बर परम्परामें इस तरहका कोई मतभेद नहीं है ।। ३. सूत्र १-३१ के भाष्यमें भाष्यकारने किन्हीं आचार्योका यह मत दिया है कि केवल ज्ञानके हो जाने पर मति श्रुत आदि ज्ञानोंका अभाव नहीं होता है किन्तु जैसे सूर्यके प्रकाशसे नक्षत्र मण्डल छिप जाता है वैसे ही अन्य सब ज्ञान विद्यमान होते हुए भी केवल ज्ञानसे अभिभूत हो जाते हैं । किन्तु भाष्यकारने इस मतको मान्य नहीं किया है। इसी तरह अन्य भी कई शास्त्रीय मत भेदोंका उल्लेख भाष्यमें किया गया है । भाष्यमें आगम विरुद्ध मान्यताओंका निर्देश-भाष्यमें आगत कतिपय मान्यताओं पर सिद्धसेनगणिने अपनी टीकामें आपत्ति की है । यद्यपि गणिजीने कतिपय मान्यताओंका समन्वय करनेकी भी चेष्टा की है किन्तु कहीं-कहीं तो वह भाष्यकारपर बुरी तरहसे बरस पड़े हैं और उनके कथनको प्रमत्तगीत (पागलका प्रलाप ) तक कह डाला है । सिद्धसेनगणि कृत टीकाकी मुद्रित प्रतिके दूसरे भागकी प्रस्तावनामें उसके सम्पादक श्री हीरालाल रसिक दास एम० ए० ने भी ऐसी मान्यताओंकी एक तालिका दी है और प्रारम्भमें लिखा है कि तत्त्वार्थसूत्रमें और उसके स्वोपज्ञ भाष्यमें कतिपय ऐसे उल्लेख हैं जो श्वेताम्बरीय, आगमादिग्रन्थोंमें अथवा दिगम्बरीय ग्रन्थोंमें दृष्टिगोचर नहीं होते। वे उल्लेख इस प्रकार हैं-तत्त्वार्थसूत्रमें (१-४) साततत्त्व बतलाये हैं १. प्रमा० मीमां० भ० टि०, पृ० २० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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