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________________ २९६ : जैनसाहित्यका इतिहास आगमिक शैलीके विद्वान थे। और जैन सिद्धान्तोंका उन्होंने अच्छा अनुगम किया था। 'आद्यशब्दो द्वित्रिभेदो' ॥१-३५॥ सूत्रकी व्याख्यामें जो उन्होंने नयोंका तथा 'उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्' ॥५-२९॥ और 'अपितानर्पितसिद्धेः ॥५-३९॥' सूत्रोंकी व्याख्यामें जो आगमिक शैलीमें अनेकान्तवादका विवेचन किया है, वह उनके वैदुष्यका परिचायक है। पं० सुखलालजीने तत्त्वार्थ सूत्रकी अपनी प्रस्तावनामें सूत्र २-५२ के भाष्यके कुछ अंशको योगसूत्रके व्यासभाष्यसे प्रभावित बतलाया है और यह प्रकट किया है कि भाष्यकार दर्शनान्तरोंके भी ज्ञाता थे। किन्तु दर्शनोंके ज्ञाता होते हए भी उनकी शैलीमें दार्शनिकतासे आगमिकता ही अधिक है। 'प्रत्यक्षमन्यत्' ॥१-१२॥ सूत्रके भाष्यमें उन्होंने यह लिखा है कि कुछ वादी अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावको भी प्रमाण मानते हैं किन्तु उनका अन्तर्भाव मतिज्ञान और श्रुत ज्ञानमें हो जाता है क्योंकि वे सब इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे होते हैं,'। परन्तु उन्होंने 'न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१-१९॥' सूत्रके भाष्यमें यह नहीं बतलाया कि चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता । और न सन्निकर्षके सम्बन्धमें ही कोई चर्चा की है । अर्थ और व्यंजनको भी स्पष्ट नहीं किया है। सूत्रोंका साधारण अर्थ करनेके साथ-साथ जहाँ उन्हें उचित प्रतीत हुआ वहाँ सम्बद्ध आगमिक या सैद्धान्तिक विषयोंका विवेचन ही उन्होंने अपने भाष्यमें किया है। यों तो उन्होंने यत्रतत्र कुछ सूत्रोंकी उत्थानिकाएं दी हैं, किन्तु अनेक आवश्यक उत्थानिकाओंको छोड़ ही दिया है। उदाहरणके लिए, दूसरे अध्यायमें 'विग्रहगती कर्मयोगः ॥२-२६॥ सूत्रसे एक बिल्कुल नई चर्चाका सूत्रपात होता है किन्तु उस तथा उससे आगेके तीन सूत्रोंकी कोई उत्थानिका ही नहीं दी। ऐसे उदाहरण और भी हैं। जहाँ उत्थानिका दिये बिना भी काम चल सकता था, वहाँ उत्थानिकाओंका देना और जहाँ उनका देना आवश्यक था, वहाँ नहीं देना, बड़ा विचित्र सा लगता है । जो विषय जहाँ देना चाहिये था, वहाँ न देकर अन्यत्र देनेका एक उदाहरण भाष्यको स्वोपज्ञताको विचार करते समय पीछे दे आये हैं। भाष्यमें मतान्तरोंका निर्देश-भाष्यकारने अपने भाष्यमें अनेक मतभेदोंका निर्देश किया है, जो प्रायः जैन सिद्धान्त विषयक ही हैं। १. भाष्यकारने सूत्र १-६के भाष्यमे 'चतुर्विधमित्येके नय वादान्तरण' लिखकर प्रमाणके चार भेदोंका मतान्तरसे निर्देश किया है। अनुयोगद्वारमें प्रमाणके चार भेद पाये जाते हैं। संभवतया भाष्यकारने 'एके' से उसीका निर्देश किया
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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