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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : २९५ आगत पुलाकादि निग्रन्थोंका लक्षण भी मिलता हुआ है । किन्तु जहाँ तक सूत्रोंके व्याख्यादिका सम्बन्ध है, दोनों ग्रन्थोंमें बहुत अन्तर पाया जाता है। वह अन्तर शैली गत, और विषयगत होनेके साथ ही साथ सूत्रगत पदोंकी सार्थकतासे विशेष सम्बन्ध रखता है । दोनों व्याख्याओंके तुलनात्मक अध्ययनसे प्रकट होता है कि सूत्रोंके पदोंकी सार्थकता आदिका जितना अच्छा बोध सर्वार्थसिद्धिकारको था उतना भाष्यकारको नहीं था। यद्यपि भाष्यकार ने भी अपने भाष्यमें सूत्रगत शब्दोंकी साथकर्ताका कहीं-कहीं निर्देश किया है किन्तु बहुतसे आवश्यक सूत्रोंके पदोंके सम्बन्धमें उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा है। यथा-औपशामिक क्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्वमौदायिकपारिणामिको च' ॥२१॥ __इस सूत्रकी रचना कुछ विचित्र है किन्तु भाष्यकार ने उसके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा। एक सूत्र है-'ज्ञान दर्शन दान लाभ भोगोपभोगवीर्याणि च ॥२-४॥' इसके भाष्यमें 'ज्ञानं दर्शनं दानं लाभो भोगो उपभोगो वीर्यमित्येतानि च नव क्षायिका भावा भवन्तीति' लिखा है जिसका अर्थ होता है कि ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग वीर्य ये नौ क्षायिक भाव होते हैं। 'च' शब्दसे पीछे कहे गये सम्यक्त्व और चारित्रका ग्रहण करना चाहिये, यह भी इसमें नहीं लिखा है । उसके बिना ज्ञानादि सात ही होते हैं। एक सूत्र है-'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते' ॥८-२॥ इसमें 'कर्मणो योग्यान्' के स्थानमें 'कर्मयोग्यान्' पद भी रखा जा सकता था । भाष्यमें 'कर्मयोग्यान्' पदका प्रयोग भी किया गया है किन्तु फिर भी 'कर्मणो योग्यान्' पद क्यों रखा, इसपर भाष्यकारने कोई प्रकाश नहीं डाला। किन्तु सर्वार्थसिद्धिकारने इस 'कर्मणो योग्यान्' पदके ऊपरसे जैनमिद्धान्तके जिस रहस्यको स्पष्ट किया है वह अपूर्व है। ___इस तरहके और भी बहुतसे उदाहरण उपस्थित किये जा सकते हैं। यहां विस्तार भयसे उन सबको देना शक्य नहीं हैं। उन सवसे यही व्यक्त होता है कि भाष्यकारको तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंका उतना स्पष्ट अनुगम नहीं था जितना सर्वार्थसिद्धिकारको था। और इससे तथा सर्वार्थसिद्धि में सूत्र १११६की व्याख्यामें आगत एक पाठान्तरके सम्बन्धमें जो उस पाठान्तरको माननेवालोंकी व्याख्या दी है उससे बराबर ऐसा लगता है कि सर्वार्थसिद्धिकारके सामने तत्त्वार्थ सूत्रकी कोई व्याख्या होनी चाहिये, जो भाष्यसे भिन्न थी। किन्तु भाष्यकारके सामने कोई अन्य व्याख्या होनेका कोई आभास भाष्यसे नहीं मिलता। शैली तथा वैदुष्य-भाष्यके अवलोकनसे प्रकट होता है कि भाष्यकार
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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