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२९४ : जेनसाहित्यको इतिहास
ही घेरा डाला था । महाभाष्य, शाकटायन तथा सिद्ध हैम व्याकरणोंमें निर्दिष्ट उदाहरणोंके प्रकाशमें यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य पूज्यपाद गुप्तवंशीय महाराजाधिराज कुमारगुप्त अपर नाम महेन्द्र कुमारके समकालिक हैं । पाश्चात्य मतानुसार कुमारगुप्तका काल वि० सं० ४७० - ५१२ ( = ३१३-३५५ ई० ) तक था । अतः पूज्यपादका काल अधिकसे अधिक विक्रमकी पाँचवीं शतीके चतुर्थ चरणसे षष्ठशताब्दीके प्रथम चरण तक ठहरता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्रके ' अरुणन्महेन्द्रोमथुराम्, उदाहरणमें महेन्द्रको मेनेन्द्रमिनण्डर समझना भारी भ्रम है ।'
श्री मीमांसकजीकी उक्त उपपत्तियाँ वजनदार हैं । और उन्होंने उनके आधार पर जो समय निर्णीत किया है वह भी पूज्यपादके अब तक निर्णीत समयके प्रतिकूल नहीं है ।
तत्वार्थ भाष्य
अब हम उस तत्त्वार्थ भाष्यके सम्बन्धमें विशेष रूपसे प्रकाश डालेंगे जिसे तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति रचित कहा जाता है । और कहा ही नहीं जाता, बल्कि भाष्यके अन्तमें पाई जाने वाले प्रशस्ति से भी यही व्यक्त होता हैं ।
किन्तु जैसा हम पूर्वमें लिख आये हैं भाष्यकी स्वोपज्ञता सन्दिग्ध है । अतः उसे सर्वार्थसिद्धिके पश्चात् रखा गया है ।
सर्वार्थसिद्धि और भाष्य - यद्यपि सर्वार्थसिद्धि और भाष्यके कुछ स्थल, जो वर्णनात्मक हैं वे परस्परमें शब्दशः मिलते हैं । जैसे नरक गतिमें दुःखोका वर्णन, अनुप्रेक्षाओं आदिका वर्णन । तथा नौवे अध्यायके पुलाक वकुश आदि सूत्रमें
१. 'सुतप्तयोरसपायन निष्टप्ताय स्तम्भालिङ्गनकूट शाल्मल्यारोहणावतरणायोघनाभिघात - वासी क्षुरतक्षण - क्षारतप्ततैलाव सेचनायः कुम्भीपाकाम्बरीषभर्जनवैतरणीमज्जनयंत्रनिष्पीडनादिभिर्नारकाणां दुःखमुत्पादयन्ति । - स० स०३।५ । ——तप्तायोरसपायननिष्टप्तायः स्तम्भालिङ्गनकूटशाल्मल्यग्रारोपणावतरणायोघनाभिघात - वासीक्षरतक्षणक्षारतप्ततैलाभिसेचायः कुम्भपाकाम्बरीषतर्जनयन्त्रपीडनायःशूलशलाका भेदन क्रकचपाटन – |' - त०भा०, ३।५ | २. 'यथा मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुषितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किञ्चिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते । —स० सि०, ९७ ॥ - यथा निराश्रये जनविरहिते वनस्थलीपृष्ठे बलवता क्षुत्परिगतेनामिषैषिणा सिंहेनाभ्याहतस्य मृगशिशोः शरणं न विद्यते एवं जन्मजरामरणव्याधिप्रियविप्रयोगाप्रियसं प्रयोग जन्तोः संसारे शरणं न विद्यते । त० भा० ९।७।