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२९२ : जंनसाहित्यका इतिहास
'आचार्य देवनन्दिके कालके विषयमें ऐतिहासिकोंका परस्पर वैमत्य है । यथा
१. कीथ अपने 'हिस्ट्री आफ क्लासिकल लिटरेचर' में लिखता है जैनेन्द्र व्याकरण ई० सन् ६७८ ( ७३५ वि०) के समीप लिखा गया ।
२. श्री प्रेमीजीने अनेक प्रमाण उपस्थित करके देवनन्दिका काल सामान्यतया विक्रमकी छठी शताब्दी निश्चित किया है ।
३. श्री आई० एस० पवतेने अपने 'स्ट्रक्चर आफ दी अष्टाध्यायी (भू० पृ० १३ ) में लिखा है— महामहोपाध्याय नरसिंहाचार्यने कर्णाटक कवि चरित्रके प्रथम भागके प्रथम संस्करणमें पूज्यपादको ईस्वी सन् ४७० (५२७ वि० ) में बताया है और दूसरे संस्करणमें सन् ६०० (६५७ वि० ) में परन्तु, मुझे १२-१२-१९३३को लिखे पत्रमें लिखा है कि पूज्यपाद ४५० ई० (५०७ वि० ) के आस-पास है ।
४. हमने अपने व्याकरण शास्त्रके इतिहासमें श्री प्रेमीजी द्वारा उद्धृत प्रमाणोंके आधारपर आचार्य पूज्यपादका काल विक्रमकी षष्ट शताब्दीका पूर्वार्द्ध माना था । अब हम उसे ठीक नहीं समझते। अब हमें जो नूतन प्रमाण उपलब्ध हुआ है उसके अनुसार आचार्य पूज्यपाद विक्रमकी षष्ठ शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं, यह निश्चित होता है ।'
श्री युधिष्ठिर मीमांसकके द्वारा उपलब्ध नया प्रमाण इस प्रकार हैकात्यायनने एक विशिष्ट प्रकारके प्रयोगके लिये नियम बनाया है— 'परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्तुर्दर्शनविषये' ( महा० ३।२।१२ ) अर्थात् ऐसी घटना जो लोकविज्ञात हो, प्रयोक्ताने उसे न देखा हो परन्तु प्रयोक्ताके दर्शनका विषय सम्भव हो ( अर्थात् वह घटना प्रयोक्ताके जीवनकालमें घटी हो) उस घटनाको कहनेके लिये भूतकालमें लङ् प्रत्यय होता है । पतञ्जलिने महाभाष्य में इस वार्तिक पर उदाहरण दिये हैं-- 'अरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो मध्यमिकाम् |' वार्तिकके नियमानुसार साकेत (अयोध्या) और माध्यमिका (चित्तौड़ समीपवर्ती नगरी ग्राम) पर यह लोक प्रसिद्ध आक्रमण पतञ्जलिके जीवनकालमें हुआ था । प्रायः सभी ऐतिहासिक इस विषयमें सहमत हैं ।
इसी प्रकारका नियम पाणिनिसे उत्तरवर्ती प्रायः सभी व्याकरण ग्रन्थोंमें उपलब्ध होता है और उसका उदाहरण देते हुए ग्रन्थकार प्राचीन उदाहरणोंके साथ-साथ स्वसमकालिक किन्हीं महती घटनाओंका भी प्रायः निर्देश करते हैं ।
यथा-
अजयद् जर्तो हूणान् । चान्द्र
अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् ।—जैनेन्द्र (२-२-९२)