________________
तत्त्वार्थविषयक टोका-साहित्य : २९१ किन्तु ऐसा कथन भ्रान्तिजन्य है । हेब्बुरुके ताम्रलेखमें 'शब्दावतारकारदेव भारती निबद्ध बृहत्कथः किरातार्जुतीय पञ्च दश सर्गटीकाकारः 'दुविनीत नामा' ऐसा लिखा हुआ है । जिससे प्रकट है कि उक्त दोनों विशेषण दुर्विनीतके हैं । अर्थात् दुविनीतने शब्दावतार ग्रन्थ रचा था, गुणाढ्यकी वृहत्कथाको संस्कृत भाषामें परिवर्तित किया था और भारविकृत किरातार्जुनीयके पन्द्रहवें सर्गकी टीका लिखी थी। पूज्यपादने पाणिनीय व्याकरणपर शब्दावतार नामक न्यास लिखा था ऐसा एक शिलालेखमें लिखा है यह पहले बतलाया गया है। इस नाम सादृश्यके कारण राईस साहबने हेब्बुरुके ताम्र पत्रमें आगत 'शब्दावतारकार' पदको पूज्यपादाचार्यका वाचक समझकर ऐसा लिख दिया कि हेब्बुरुके शिलालेखमें लिखा है कि पूज्यपादाचार्य दुविनीतके शिक्षागुरु थे । और उसीको प्रमाण मानकर दूसरोंने भी वैसा लिख दिया ।
उक्त भ्रमका निराकरण पं० ए, शान्तिराज शास्त्रीने तत्त्वार्थ सूत्रकी भास्करनन्दि विरचित सुखबोधिनी वृत्तिको प्रस्तावनामें (पृ०४३-४५) किया है ।
७. देवसेनने वि० सं० ९९० में दर्शनसार नामक ग्रन्थकी रचना की थी, उसके अन्तमें उन्होंने लिखा है कि पूर्वाचार्यकृत गाथाओंको एकत्र करके इस ग्रन्थकी रचना की गई है। अतः उसकी प्रामाणिकता बढ़ जाती है। उसमें लिखा है कि पूज्यपादका शिष्य पाहुडवेदी वज्रनन्दी द्राविड़ संघका कर्ता हुआ । और तब दक्षिण मथुरा (मदुरा) में वि० सं० ५२६ में यह महामिथ्यात्वी संघ उत्पन्न हुआ।
चूकि वज्रनन्दि देवनन्दिके शिष्य थे इसलिये द्रविड़ संघ की स्थापनाके उक्त कालसे दस बीस वर्ष पहले उनका समय माना जा सकता है । अतः श्रीयुतर प्रेमीजीने देवनन्दि पूज्यपादका समय विक्रम की छठी शताब्दी माना है। ___७. श्रीयुधिष्ठिर मीमांसकने इधर देवनन्दिके समयका निश्चायक एक नूतन प्रमाण उपस्थित किया है । भा० ज्ञा० पीठ काशी से प्रकाशित जैनेन्द्र महावृत्तिके नये संस्करणके प्रारम्भमें 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन और उसके खिल पाठ' शीर्षक अपने लेखमें 'आचार्य देवनन्दीका काल और उसका निश्चायक नूतन प्रमाण' (पृ० ४२-४३) उपस्थित करते हुए उन्होंने लिखा है
१. 'सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुड
वेदी महासत्तो ॥२४॥ पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स ।
दक्खिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥२८॥-द० सा० । २. जै० सा० इ०, पृ० ४६ ।