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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : २८९ जं मया दिस्सदे रूवं तण्ण जाणादि सव्वहा । जाणगं दिस्सदे णं तं तह्मा जंपेमि केण हं ॥२९॥-मो० प्रा० । यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा। जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ववीम्यहम् ॥१८॥-स० तं० । जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥३१॥-मो० प्रा० । व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागांत्मगोचरे । जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥७८॥-स० तं० । समाधितंत्रके दोनों श्लोक मोक्षप्राभृतकी उक्त गाथाओंके संस्कृत रूपान्तर जैसे हैं । इतना ही नहीं, पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि में 'संसारिणो मुक्ताश्च' । सूत्रको व्याख्यामें पाँचो परावर्तनोंका स्वरूप बतलाते हुए प्रत्येक परावर्तनके अन्तमें उसकी समर्थक जो एक-एक करके पांच गाथाएं 'उक्तं च' लिखकर उद्धृत की है, वे पाँचो गाथाएं उसी क्रमसे कुन्दकुन्दरचित 'वारह अणुवेक्खा' में पाई जाती हैं। अतः निश्चित है कि कुन्दकुन्दके ग्रन्थसे ही उन्हें उद्धृत किया गया है । इसलिये यह निश्चित है कि पूज्यपाद कुन्दकुन्दके पश्चात् हुए हैं। तथा गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वातिके द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्रपर उन्होंने वृत्ति लिखी है अतः उनके पश्चात् भी होना सुनिश्चित है । पीछे कुन्दकुन्दका समय वि० सं० १८० से २३० तक तथा सूत्रकारका समय वि० सं० ३०० तक सिद्ध किया है। अतः पूज्यपाद विक्रमसम्वत् ३०० के पश्चात् हुए हैं । २. पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि ( ७-१३ ) में 'नियोजयति चासुभिर्नच बधेन संयुज्यते' यह पद्यांश 'उक्तं च' लिखकर उद्धृत किया है। सिद्धसेनकी तीसरी द्वात्रिंशिकाके १६वं पद्य का यह प्रथम चरण है। जैनेन्द्र सूत्रमें भी सिद्धसेनका उल्लेख है । सिद्धसेनका समय पं० सुख लालजीने विक्रमकी पांचवी शताब्दी निश्चित किया है अतः पूज्यपाद उसके पश्चात् हुए हैं। ३. पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र' व्याकरणके सूत्रोंमें भूतबलि, समन्तभद्र, सिद्धसेन, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामके पूर्वाचार्योंका उल्लेख किया है। इनमेंसे भूतवलि तो षट्खन्डागमके रचयिता प्रतीत होते हैं जो विक्रमकी दूसरी शताब्दीमें हुए हैं। प्रखर तार्किक और अनेकान्तवादके प्रस्थापक समन्तभद्र तो १. 'राद् भूतबलेः । ३-४-८३ । 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियाम् । १-४-३४ ।' 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५-१-७ ।' 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५-४-१४० ।' 'कृवृषिमजां यशोभद्रस्य । २-१-९८।' राशेः कृति प्रभाचन्द्रस्य । ४-३-१८०।-जै० व्या०। १९
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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