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तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : २८७ में शङ्का उठाई है, उसका कोई प्राचीन आधार उपलब्ध नहीं होता है। संभव है पूज्यपाद स्वामीके सन्मुख श्रावकाचार सम्बन्धी कोई ग्रन्थ वर्तमान रहा हो, जिसमें रात्रि भोजन विरमणको छठा अणुव्रत माना हो।
सातवें अध्यायके तेरहवें सूत्रकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद स्वामीने हिंसा और अहिंसाके स्वरूपका संक्षेपमें सुन्दर विवेचन किया है और उसके समर्थनमें अनेक गाथाएँ तथा श्लोक भी उद्धृत किये हैं। सूत्र में प्रमत योगसे प्राणोंके घात को हिंमा कहा है। सूत्रके दोनों पदोंका समर्थन करते हुए पूज्यपाद स्वामीने कहा है कि केवल प्राणोंका घात हो जाना मात्र हिंसा नहीं है । तथा दूसरेके प्राणोंका घात न होने पर भी यदि घातकमें प्रमत्तयोग है तो भी हिंसा है क्योंकि घातकका भाव हिंसारूप है। इसके समर्थनमें उन्होंने एक बड़ा ही भावपूर्ण' श्लोक उद्धत किया है । उसमें बताया है कि प्रमादी जीव सबसे प्रथम तो अपने द्वारा अपना ही घात करता है। दूसरे प्रणियोंका घात हो न हो यह तो पीछे की बात है। जिस ग्रन्थका यह श्लोक होगा, वह ग्रन्थ अवश्य ही महत्त्वपूर्ण होना चाहिए।
हिंसाकी तरह ही अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहके स्वरूपको बतलाने वाले सूत्रोंका बहुत ही सुन्दर विवेचन किया गया है और प्रत्येक पापको भावपरक बतलाकर द्रव्यकी अपेक्षा भावके महत्त्वको प्रकट किया है। ___इसी तरह २२र्ने सूत्रको व्याख्यामें सल्लेखना ( समाधि पूर्वक मरण ) का वर्णन करते हुए व्यापारीके दृष्टान्तके द्वारा सल्लेखनामें आत्मघातके दूषणका परिहार बड़ी सुन्दर रीतिसे किया है ।
१२ आठवें अध्यायमें कर्मबन्धका और कर्मोके भेद-प्रभेदों वगैरहका वर्णन है । प्रथम सूत्रमें बन्धके पाँच कारण बतलाये हैं। उनका व्याख्यान करते हुए पूज्यपादने मिथ्यात्वके पाँच भेदोंका स्वरूप बतलाया है। उनमेंसे विपरीत मिथ्यात्वका स्वरूप बतलाते हए उन्होंने जहाँ पुरुपाद्वैतकी मान्यताको विपरीत मिथ्यात्व बतलाया है, वहाँ सग्रन्थको निम्रन्थ कहना, केवलीको कवलाहारी कहना तथा स्त्रीको मोक्ष कहना, इन तीनों श्वेताम्बरीय मान्यताओंका उल्लेख भी विपरीत मिथ्यात्व
में किया है।
इसी अध्यायके दूसरे सूत्रका व्याख्यान तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इस 'स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व-प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद् स्याद्वा न वा वधः ॥' 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानुपादत्ते स बन्धः ।
___० सू० ८-२।