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________________ २८६ : जेनसाहित्यका इतिहास और अन्तिम तीर्थङ्करके तीर्थमें पांच महाव्रतोंके साथ राशि भोजन विरमण छठा महावत होता है। श्वेताम्बरीय महानिशीथ सूत्रमें भी पांच महाव्रतोंके साथ राशि भोजन विरमण नामका छठा महाव्रत बतलाया है। तथा टीकाकारने लिखा है कि यह रात्रि भोजनव्रत प्रथम तीर्थङ्कर और अन्तिम तीर्थङ्करके तीर्थमें ऋजुजड़ और वक्रजड़ पुरुषोंकी अपेक्षासे मूलगुण बतलानेके लिए महावतोंके पश्चात् रखा गया है । शेष मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके तीर्थमें तो उत्तरगुण माना गया है। किन्तु विशेषावश्यक भाष्यमें सम्यक्त्व सहित पांच महाव्रतोंको मुनियोंके मूलगुण और सम्यक्त्व सहित पांच अणुव्रतोंको गृहस्थोंके मूलगुण कहा है । इसपर यह शंका की गई कि रात्रिभोजनविरमण भी तो मूलगुण है उसका ग्रहण क्यों नहीं किया ? तो उसका उत्तर दिया गया है कि व्रती संयमीको ही रात्रि भोजन विरमण मूलगुण है, गृहस्थका तो उत्तर गुण है । अथवा महाव्रतका संरक्षक होनेसे रात्रि भोजन विरमण उत्तर गुण है । तथापि समस्त व्रतोंका पालक होनेसे उसे मूलगुण कहते हैं । और मूलगुणोंके ग्रहणसे उसका ग्रहण हो जाता है।' ___ इस तरह श्वेताम्बर परम्पराके प्राचीन ग्रन्थोंमें रात्रि भोजन विरमणको छठा महावत माना है और दिगम्बर परम्पराके प्राचीन ग्रन्थोंमें भी यद्यपि रात्रिभोजन विरतिको स्पष्ट रूपसे छठा महाव्रत नहीं कहा, तथापि महाव्रतोंकी रक्षाके लिये उसे एक व्रत माना है। किन्तु पूज्यपाद स्वामीने उसके सम्बन्धमें कोई शंका न उठाकर जो रात्रि भोजन विरति नामक छठे अणुव्रतके अस्तित्वके सम्बन्ध १. 'आद्यपाश्चात्यतीर्थयो रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि पंच महाव्रतानि ।' भ० आ० टी०, पृ० ६१४ ।। २. 'मूलगुणा पंच महव्वयाणि राईभोयण छट्टाई ।'-महानि०, ३ अ० । ३. 'एतच्च रात्रिभोजनव्रतं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थ महाव्रतोपरि पठितं । मध्यमतीर्थकरतीर्थे पुनः ऋजुप्राज्ञ पुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति' । अभि० रा०, भा० ५, पृ० २९५ ।। ४. 'सम्मत समेयाई महन्वयाणुव्वयाई मूलगुणा। मूलं सेसाहारो बारस तग्घा इणो एए ॥१२३९॥ निसिभत्तविरमणं पिह न णु मूलगुणो कहं न गहियं तं । वयधारिणो च्चिय तयं मूलगुणो सेसयस्सियरो ॥१२४०।। आहार विरमणाओ तवो व तव एव वा जओऽणसणं । अहव महन्वयसंरक्खत्तणाओ समिइउव्व ॥१२४१॥ तह वि य तयं मूलगुणो भण्णइ मूलगुणपालयं जम्हा । मूलगुण गहणम्मि य तं गहियं उत्तरगुणब्व ॥१२४२॥-वि० भा० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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