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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : २८५ श्वेताम्बर परम्परा केवलीको ग्रासाहारी मानती है, दिगम्बर परम्परा ऐसा नहीं मानती। वह इसे केवलियों पर मिथ्यादोषारोपण मानती है । उसीका कथन पूज्यपादने किया है। जैनागमको थ त कहते हैं । भगवती सत्र वगैरहमें ऐसे वाक्य भी हैं जिनका अर्थ मांस परक होता है। सम्भवतया उन्हींकी ओर पूज्यपाद स्वामीका संकेत है। __ जैन साधुओं, जैनधर्म और जैनधर्मके अनुयायिओंके सम्बन्धमें जिस अवर्णवादका उल्लेख किया गया गया है, वह हिन्दु पुराणोंमें जो जैनधर्मकी उत्पत्ति आदिको कथाएं दी गई हैं उसीको लक्ष्य करके लिखा गया जान पड़ता है । देवोंके सुरा और मांस सेवनकी चर्चा भी हिन्दु पुराणोंमें पाई जाती है। ११. सातवें अध्यायके प्रथम सूत्रकी वृत्तिमें पूज्यपादस्वामीने एक शङ्का उठाई है कि रात्रि भोजन' त्याग नामक एक छठा अणुव्रत भी है। उसको भी यहाँ गिनना चाहिये। और इसका यह समाधान किया गया है कि अहिंसाव्रतकी भावनाओंमें उसका अन्तर्भाव हो जाता है। इस शंका समाधानसे यह प्रकट होता है कि पहले रात्रि भोजन विरति नामक भी एक छठा अणुव्रत माना जाता था । अकलंक देवने अपने तत्त्वार्थ वातिकमें भी उक्त सूत्रके अन्तर्गत सर्वार्थ सिद्धिके अनुरूप ही उक्त शंका समाधान किया है। किन्तु उल्लेखनीय बात यह है कि सातवें अध्यायके प्रथय सूत्र में व्रतोंकी चर्चा है और दूसरे सूत्रमें उन व्रतोंके अणुव्रत और महाव्रत भेद किये हैं। पूज्यपादस्वामी राशि भोजन विरतिको छठा अणुवत होनेके सम्बन्ध में शङ्का उपस्थित करते हैं महावत होनेके सम्बन्धमें नहीं। किन्तु मूलाचार और भ० आराधनामें एक समान गाथाके द्वारा पांच महाव्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रि भोजन निवृत्तिका निर्देश है किन्तु उसे छठा महाव्रत नहीं कहा है। परन्तु भ० आ० की विजयोदया टीकामें दस स्थितिकल्पोंका वर्णन करते हुए छठे व्रत नामक स्थिति कल्पके वर्णनमें लिखा है कि उन पाँच ब्रतों (महाव्रतों) के पालनेके लिए रात्रि भोजन विरमण नामका छठा व्रत (महाव्रत) कहा गया है। तथा यह भी लिखा है कि आद्य १. 'ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यम्, न, भावनास्वन्तर्भावात्।'-सर्वा० सि०, ७-१ । २-३. 'तेसिं चेव वदाणं रक्खण8 रादिभोयणणियत्ती ।-मूला० गा० २९५, भ० आ० गा० ११८५ । ४. 'तेषामेव पञ्चानां व्रतानां पालनार्थ रात्रि भोजनविरमणं षष्ठं व्रतम्' । भ० मा० टी०, पृ० ६१५ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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