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२८४ : जेनसाहित्यका इतिहास
दूसरा अध्याय जीवसे सम्बद्ध सैद्धान्तिक बातों से सम्बद्ध है और उन्हींका विवेचन पूज्यपादने किया है । विस्तार भयसे उसका यहाँ विवरण नहीं दिया गया। तीसरा और चौथा अध्याय लोकानृयोगसे सम्बद्ध है उसमें तीन लोकोंका वर्णन है । पूज्यपाद स्वामीने प्रत्येक सूत्रकी वृत्तिमें सम्बद्ध विषयका विवेचन संक्षेपमें सुन्दर रीति से किया है जिससे ज्ञात होता है कि वे लोकानुयोगके भी बहुत अच्छे ज्ञाता थे ।
९. पाँचवें अध्यायमें द्रव्योंका कथन होनेसे उनमें अनेक दार्शनिक चर्चाएँ पूज्यपाद स्वामीने की हैं । यथा द्रव्याणि ॥ २ ॥ सूत्रकी वृत्तिमें 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यम्' और 'गुणसमुदायो द्रव्यम्' इन लक्षणोंकी आलोचना की है । 'जीवाश्च ||३||' सूत्रकी वृत्ति में वैशेषिकोंके नौद्रव्योंका अन्तर्भाव पुद्गलादिद्रव्योंमें सिद्ध करके परमाणुओंमें पार्थिवादि जातिभेदका निराकरण किया है और सब परमाओंको एक जातीय ही बतलाया है ।
सूत्र १९ की वृत्ति में शब्द के अमूर्तिकत्वका निराकरण करके उसे मूर्तिक बतलाया है तथा मनको पृथक् द्रव्य माननेका और उसके अणुरूप होनेका खण्डन किया है। सूत्र ३० - ३२ की व्याख्या में द्रव्यको उत्पाद व्यय धोव्यात्मक बतलाकर देवदत्तके दृष्टान्त द्वारा वस्तुको अनेकान्तात्मक सिद्ध किया है ।
पूज्यपादने यद्यपि स्याद्वाद और सप्तभंगीका नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु अनेकान्तवादके द्वारा वस्तुस्थितिका निरूपण जगह-जगह किया है ।
१०. छठे अध्यायके सूत्र १३ में केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादसे (झूठा दोषारोपण करनेसे ) दर्शन मोहनीय कर्मका आस्रव होना बतलाया है । इसकी व्याख्यामें पूज्यपाद स्वामीने श्वेताम्बर मान्यताओंका निर्देश किया हैं । लिखा ' है - केवली ग्रासाहार करते हैं ऐसा कहना केवलियोंका अवर्णवाद है । शास्त्रमें मांस भक्षण करनेमें कोई दोष नहीं बतलाया ऐसा कहना श्रुतका अवर्णवाद है । जैन साधु शूद्र होते हैं अपवित्र होते हैं इत्यादि कहना उनका अवर्णवाद है । जैन धर्म निर्गुण है उसको मानने वाले मरकर असुर होते हैं इत्यादि कहना धर्मका अवर्णवाद है । देवगण सुरा और माँसका सेवन करते हैं, इत्यादि कथन करना देवोंका अवर्णवाद है ।
१. 'कवलाभ्यवहारजीविनः केवलिन इत्यादि वचनं केवलिनामवर्णवादः । मांसभक्षणाद्यनवद्याभिधानं श्रुतावर्णवादः । शुद्रत्वाशुचित्वाद्याविर्भावनं संघावर्णवादः । जिनोपदिष्टो धर्मों निर्गुणस्तदुपसेविनो ये ते चासुरा भविष्यन्तीत्येवमाद्यभिधानं धर्मावर्णवादः । सुरामांसोपसेवाद्याघोषणं देवावर्णवाद: । - सर्वा० स०, ६-१३ ।