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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : २८३ मध्यमें भेदकी रेखा खड़ी की। सिद्धसेम दिवाकरने परार्थानुमानको जैनन्यायमें स्थान तो दिया, किन्तु उसके समन्वयका कोई यत्न नहीं किया। पूज्यपादका ध्यान उस ओर गया और उन्होंने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद करके श्रुत प्रमाणको उभयरूप बतलाया। किन्तु अनुमानके अन्तर्भावकी बात फिर भी शेष रह गई। अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें' स्वार्थानुमानका अन्तर्भाव अनक्षरात्मक अथवा ज्ञानात्मक श्रुतमें किया और परार्थानुमानका अन्तर्भाव अक्षरात्मक अथवा वचनात्मक श्रुतमें किया। ४. 'सत्संख्या' आदि सूत्रकी वृत्तिमें सदादि आठ अनुयोगोंके द्वारा चौदह मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका विवेचन बहुत सुन्दर रीतिसे किया है । उसका आधार 'षट्खण्डागम' 'जीवट्ठाण के सूत्र हैं। ५. प्रमाणकी चर्चाम नैयायिक वैशेषिकोंके सन्निकर्ष प्रामाण्यवादका तथा सांख्योंके इन्द्रिय प्रामाण्यका निराकरण करके ज्ञानके ही प्रामाण्यका व्यवस्थापन किया है तथा ज्ञानको स्वपर प्रकाशक बतलाया है । इसी तरह 'अर्थस्य' सूत्रकी वृत्तिमें इन्द्रियका सन्निकर्ष गुणके साथ होता है, गुणीके साथ नहीं होता, इस मतका निराकरण करके द्रव्यके साथ इन्द्रियका सम्पर्क होता है इस बातको स्थापित किया है । तथा आगे चक्षुके प्राप्यकारित्वका आगम और युक्तिसे खण्डन करके चक्षु अप्राप्यकारी है इस बातको सिद्ध किया है । उपलब्ध जैनसाहित्यमें ये चर्चाएं पूज्यपादसे पहले नहीं मिलती। ६. सत्र १-३२ की वृत्तिमें कारणविपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विषर्यासकी चर्चा करते हुए योग, सांख्य, बौद्ध, चार्वाक आदिके मतोंका निर्देश किया है और उनके ज्ञानको मिथ्याज्ञान बतलाया है। ७. सूश १-३३ की वृत्तिमें नयके सात भेदोंका स्वरूप बहुत सुन्दर रीतिसे बतलाया है। ८. दूसरे अध्यायके तीसरे सूत्रकी वृत्तिमें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति अनादि मिथ्या दृष्टि जीवके कैसे होती है, यह बतलाते हुए काल लब्धियोंका कपन किया है । वैसे आगममें पाँच लब्धियाँ वतलाई हैं-क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करण लब्धि । किन्तु पूज्यपाद स्वामीने केवल काल लब्धिके नाम से हो लब्धियोंका निर्देश किया है-वे हैं-'काल लब्धि' कर्मस्थिति काललब्धि और भवापेक्षया काललब्धि । षट्खण्डागमके जीवट्ठाणको सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिकाके सूत्रों का ही अनुसरण पूज्यपादने उक्त कथनमें किया है। किन्तु उसमें काललब्धि आदि नामोंका कोई निर्देश नहीं है। १. 'अनुमानादीनां पृथगनुपदेशः श्रुतावरोधात् ।' -त० वा०, पृ० ७८ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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