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________________ २८२ : जैनसाहित्यका इतिहास संस्कृत भाषामें कई अच्छे-अच्छे ग्रन्थ रचे जा चुके थे जो भाषा और विषयको दृष्टिसे उच्चकोटिके थे। विशिष्ट चर्चाएं-तत्त्वार्थ सूत्रका टीकाग्रन्थ होनेसे सर्वार्थ सिद्धि में भी उन्हीं विषयोंका विवेचन है जिनका निर्देश तत्वार्थ सूत्रमें है। किन्तु जिन विशिष्ट चर्चाओंको सर्वार्थसिद्धिकारने उठाया है उनमेंसे कुछका निर्देश नीचे किया जाता है जो कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण हैं। १. मंगलाचरण करनेके पश्चात् प्रथम सूत्रको उत्थानिकामें पूज्यपादने लिखा है--स्वहितैषी निकट भव्यने एक आश्रममें मुनियोंकी परिषदके मध्यमें बैठे हुए निर्ग्रन्थाचार्यके पास जाकर विनय सहित पूछा-भगवन् ! आत्माका हित क्या है । आचार्य ने उत्तर दिया मोक्ष । भव्यने पुनः पूछा--मोक्षका स्वरूप क्या है और उसको प्राप्तिका उपाय क्या है ? इसी प्रश्नके उत्तरस्वरूप प्रथम सूत्र रचा गया और इस तरह तत्त्वार्थ सूत्रका सूत्रपात हुआ। तत्त्वार्थ भाष्यके प्रारम्भमें जो ३१ सम्बन्ध कारिकाएँ हैं उनमेंसे अन्तिम कारिकामें भी यही वात कही गई कि 'मोक्ष मार्गके बिना इस जगतमें हितका उपदेश नहीं है । इसलिये उसी मोक्षमार्गको कहता हूँ।' २. प्रथम अध्यायके छठे सूत्र 'प्रमाणनयरधिगमः' की व्याख्यामें पूज्यपाद स्वामीने प्रमाणक स्वार्थ और परार्थ भेद करके केवल श्रुतज्ञानको स्वार्थ और परार्थ बतलाया है तथा उसीके भेद नय है, ऐसा कहा है। इसीमें 'उक्त' करके नयका लक्षण तथा 'सकलादेशो प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः ।' वाक्य उद्धृत किये हैं। जहाँ तक हम जानते हैं 'प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद पूज्यपादसे पहलेके किसी जैनग्रन्थमें नहीं पाये जाते । और न सकला देश और विकलादेशवाला वाक्य ही उद्धृत पाया जाता है। सिद्धसेनके न्यायावतारमें अनुमानके स्वार्थ परार्थ भेद बतलाये हैं, प्रमाणके नहीं। ३. गौतमने अपने न्यायसूत्रोंमें अनुमानके दो भेद किये थे-स्वार्थ और परार्थ । किन्तु उद्योतकरसे पहले नैयायिक किसी व्यक्तिको ज्ञान करानेके लिये परार्थानुमानकी उपयोगिता नहीं मानते थे। बौद्धदार्शनिक दिङ्नागने दोनों भेदोंका ठीक-ठीक अर्थ करके सबसे पहले स्वार्थानुमान और परार्थानुमानके १. 'नर्ते च मोक्षमार्गाद्धितोपदेशोस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥३१॥ २. 'प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुतवय॑म् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थञ्च ।' -सर्वा० १-६ । ३. बुद्धिस्ट लाजिक ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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