________________
तत्त्वार्थविषयक टोका-साहित्य : २८१ जैनेन्द्र शासन रूपी परम अमृतका सारभूत कहा है और कहा है कि स्वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त करनेकी मनो कामनावाले सत्पुरुषोंने उसे सर्वार्थ सिद्धि नाम दिया है। अर्थात् उसे यह नाम स्वयं वृत्तिकार ने नहीं दिया किन्तु इस वृत्तिके गुणोंपर मुग्ध हुए मुमुक्ष सज्जनोंने दिया है।
दूसरे पद्यमें कहा है-अर्थके सारको जानने वाले जो जन धर्मभक्तिसे तत्त्वार्थ वृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं, परम सिद्धिके सुखरूपी अमृतको वे हस्त गतकर लेते हैं, तब चक्रवर्ती और इन्द्र पदके सुखके विषयमें तो कहना ही क्या है ? ___ सोलह स्वर्गासे ऊपर सबसे अन्तमें पांच अनुत्तर विमानका नाम सर्वार्थ सिद्धि है । जो जीव सर्वार्थसिद्धिमें जन्म लेता है वह वहांकी आयु भोगनेके पश्चात् वहांसे चयकर एक मनुष्य भव धारण करके नियमसे मोक्ष लाभ करता है। यह तत्त्वार्थ वृत्ति भी उसीके समकक्ष है अतः उसे सर्वार्थसिद्धि नाम दिया गया है, यही बात दूसरे पद्यमें कही गई है ।
रचना शैली-पूज्यपाद सूत्रकार भी थे। सूत्र अल्पाक्षर, असन्दिग्ध और सारभूत होता है । अतः सूत्रकारके द्वारा रची हुई वृत्तिमें भी इन गुणोंका होना स्वाभाविक है। तदनुसार सर्वार्थसिद्धिमें एक भी शब्द फालतु प्रयुक्त नहीं हुआ है, परिमित
और असन्दिग्ध शब्दोंके द्वारा सूत्र गत सैद्धान्तिक, दार्शनिक और व्याकरण संगत वातोंको बड़ी ही प्रसन्न और परिमार्जित शैलीमें सूत्र सदृश छोटे-छोटे वाक्योंके द्वारा सरल शब्दोंमें कहा गया है। इसीसे अकलंक देव ने अपने तत्त्वार्थवातिकमें सर्वार्थसिद्धिके अनेक सूत्रात्मक वाक्योंको वार्तिकरूपमें स्थान दिया है। और फिर उनकी व्याख्या भी की है। सर्वार्थसिद्धिमें भी पूज्यपाद ने सूत्रात्मक वाक्योंका प्रयोग करके पुनः उनका स्पष्टीकरण किया है ।
सूत्रकी व्याख्याका उनका वह क्रम है कि पहले यह सूत्रगत शब्दोंका अर्थ करते हैं पश्चात् उसका विवेचन करते हैं। पातञ्जल महाभाष्यके साथ सर्वार्थसिद्धिकी तुलना करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूज्यपादने महाभाष्यकी शैलीको अपनाया है और उसीका उनपर विशेष प्रभाव है।
उनके विवेचन दार्शनिकता और तार्किकताको लिये हुए होते है । सूगगत प्रत्येक पदकी सार्थकता तथा आवश्यकताको स्पष्ट करते हुए वे उसका हार्द अपने पाठकके सामने खोलकर रख देते हैं । आवश्यक होनेपर वे आगम प्रमाण भी उपस्थित करते हैं।
उनके द्वारा उद्धृत गाथाएँ प्रायः कुन्द-कुन्दके ग्रन्थोंमें पाई जाती है। किन्तु उद्धृत संस्कृत श्लोकोंके उद्गमका कोई पता नहीं चलता । कुछ संस्कृत वाक्य भी इस प्रकारके हैं। उन सबसे पता चलता है कि जैन परम्परामेंसे पूज्यपाद पहले