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२७६ : जैनसाहित्यका इतिहास कहते हैं। इस पर आपत्ति करने हुए लिखा है कि कुछ दार्शनिक सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि तत्त्व है ऐसा मानते हैं । कुछ 'यह सब जगत पुरुष (ब्रह्म) ही है, ऐसा एकतत्त्व मानते हैं । 'तत्प्रमाणे' सूत्रकी व्याख्यामें उन्होंने सन्निकर्षवादका तथा वैशेषिकोंके संसर्गवादका, 'प्रत्यक्षमन्यत् ॥१२॥' सूत्रकी व्याख्यामें इन्द्रियपूर्वकज्ञानके प्रत्यक्षत्वका निषेध करते हुए योगिप्रत्यक्षको अनेकार्थग्राही माननेपर उसके विरोधमें एक कारिका 'विजानाति न विज्ञान' इत्यादि उपस्थित की है जो बौद्ध विज्ञानवादकी प्रतीत होती है । उसीके आगे 'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः' बौढोके इस मतका निर्देश करके उसको खण्डन किया है और प्रदीपको भी अनेकक्षणवर्ती बतलाया है।
इसी तरह पांचवें अध्यायमें 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यम्' इस वैशेषिक मान्यताका. खण्डन करके वैशेषिकोंके नौद्रव्यवादका निराकरण किया है । इनसे प्रकट है कि पूज्यपाद उक्तदर्शनके विशिष्ट अभ्यासी थे। जैनसिद्धान्तके तो वे मार्मिक पण्डित थे ही । 'त० सू० १-८ की' व्याख्यामें उन्होंने आठों अनुयोगद्वारोंका विवेचन षट्खण्डागमके सूत्रोंके आधारसे बहुत विस्तारसे किया है तथा अन्य सूत्रोंकी व्याख्या अनेक सैद्धान्तिक बातोंका विवेचन बड़ी सूक्ष्मदर्शिताके साथ सयुक्तिक किया है।
उनके समाधिशतक और इष्टोपदेश उनके अध्यात्मविषयक चिन्तनको प्रकट करते हैं । और बतलाते हैं कि उन्होंने कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थोंका अच्छा मनन किया था।
इस तरह पूज्यपाद व्याकरण, जैनसिद्धान्त-इतरदर्शन तथा अध्यात्यके प्रखर विद्वान थे और उन्होंने अपने समयके विशिष्ट ग्रन्थोंका गम्भीर अध्ययन किया था।
पूज्यपादके जन्मस्थान, पितृकुल तथा गुरुकुलके विषयमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता । कनड़ी भाषामें चन्द्रग्य नामक कविका बताया हुआ एक -पूज्यपाद चरित है जो दुषमकालके परिधावी संवत्सरकी आश्विन शुक्ला ५ शुक्रवारको समाप्त हुआ था। चरितमें अनेक ऐसी बाते हैं जो इतिहास विरुद्ध है। अतः उसे विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। उसमें पाणिनि व्याकरणके रचयिता पाणिनिको पूज्यपादका मामा बतलाया है । 'कर्नाटक देशके कोले नामक ग्रामसे १. 'सत्ता-द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्वादि तत्त्वमिति कैश्चित्कल्प्यते।' तत्त्वमेकत्वमिति वा सवैक्यग्रहणप्रसङ्गः । पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि कैश्चित् कल्प्यते ।'
--सर्वा०सि०, १-२॥ २. सर्वा० सि० ५-२ तथा ५-३ ।