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________________ तत्त्वार्थविषयक टोका-साहित्य : २७५ नामसे उनका स्मरण करते हुए उन्हें अचिन्त्यमहिमायुक्त और अपना हित चाहने वालोंके द्वारा सदा बन्दनीय कहा है और कहा है कि उनके द्वारा शब्दकी सिद्धि भले प्रकार होती है। ____ श्री शुभचन्द्राचार्यने भी अपने' पाण्डवपुराणके प्रारम्भमें पूज्यपादका स्मरण करते हुए उन्हें व्याकरण रूपो समुद्रका पारगामी बतलाया है । ज्ञानार्णवके रचयिता शुभचन्द्र सूरिने अपने ज्ञानार्णवके प्रारम्भमें देवनन्दिको नमस्कार करते हुए कहा है कि उनके वचन प्राणियोंके काय, वचन और मनः सम्बन्धी दोषोंको दूर करते हैं । अर्थात् उनके वैद्यक शास्त्रसे शरीरके, व्याकरण शास्त्रमें वचनके और समाधिशास्त्रसे मनके विकार दूर हो जाते हैं । उक्त आदरपूर्ण संस्तवनोंसे स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपाद एक अत्यन्त आदरास्पद और प्रख्यात जैनाचार्य हो गये हैं। उनका पाण्डित्य सर्वविश्रुत था। व्याकरण, जैन सिद्धान्त, दर्शन, काव्य, वैद्यक आदि सभी विषयोंमें उनकी अव्याहतगति थी और इन सभी विषयोंमें ग्रन्थ रचना करके उन्होंने भारतीय संस्कृत साहित्यके भण्डारको समृद्ध बनाया था। वैदुष्य-पूज्यपाद स्वामीकी रचनाओंके अवगाहनसे उनके असाधारण वैदुष्यका परिचय मिलता है । संस्कृत भाषा पर तो उनका असाधारण अधिकार था ही । तब तक किसी जैनाचार्यने संस्कृत भाषाका कोई व्याकरण नहीं बनाया था। उस कार्यको सबसे प्रथम पूज्यपादने किया। उनके जैनेन्दब्याकरणका प्रथम सूत्र सिद्धिरनेकान्तात्' है, जो बतलाता है कि शब्दोंकी सिद्धि भी अनेकान्तवादसे होती है। जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है । अतः पूज्यपादने पदार्थशास्त्रकी तरह शब्दशास्त्रमें भी अनेकान्तवाद दर्शनको अपने व्याकरणके द्वारा अवतारित किया है। उनकी सर्वार्थ सिद्धि उनके बौद्ध, न्यायवैशेषिक आदि दर्शनोंमें पाण्डित्यको प्रकट करती है। उसकी उत्थानिकाके आरम्भमें ही उन्होंने सांख्य, वैशेषिक और बौद्धाभिमत मोक्षके लक्षणोंको समीक्षा परिमित शब्दोंमें की है। उसके प्रथम अध्यायके दूसरे सूत्रकी व्याख्यासे उन्होंने 'तत्त्वके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन १. 'पूज्यपादः सदापूज्यपादः पूज्यः पुनातु माम् । व्याकरणार्णवो येन तीर्णो विस्तीर्णसद्गुणः' ॥ १६ ॥ -पा० पु. १ पर्व । २. 'अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक् चित्तसंभवम् । कलङ्कभंगिमां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ -ज्ञाना०
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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