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________________ जैनसाहित्यका इतिहास तृतीय भाग पंचम अध्याय तत्वार्थविषयक टीका-साहित्य पिछले अध्यायमें तत्त्वार्थ-विषयक मूल साहित्यका इतिवृत्त अंकित किया जा चुका है। अब इस अध्यायमें तत्त्वार्थ-विषयक टीका-साहित्य पर प्रकाश डाला जायगा। यहाँ यह स्मरणीय है कि आचार्य पूज्यपादका सर्वार्थसिद्धि-प्रन्थ, अकलक देवका तत्त्वार्थ वार्मिक ग्रन्थ और श्रुत सागर सूरिकी तत्त्वार्थवृत्ति ऐसे टीकाग्रन्थ हैं, जो मूल ग्रन्थोंकी श्रेणीमें स्थान प्राप्त करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्योंका यह टीका-साहित्य विस्तारकी दृष्टिसे तो महत्त्वपूर्ण है ही, पर प्रमेयविवेचनकी दृष्टिसे भी अत्यन्त उपादेय है। आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि तत्त्वार्थसूत्रके प्रकरणमें लिख आये हैं कि तत्त्वार्थसूत्रपर उपलब्ध आद्य वृत्ति पूज्यपाद-देवनन्दिकृत सर्वार्थसिद्धि नामक टीका है । इस टीकामें टीकाकारने कहीं भी अपने नामका संकेत तक नहीं दिया। किन्तु श्रवणवेल गोलाके शिलालेख नं० ४० से ज्ञात होता है कि पूज्यपाद देवनन्दि ही सर्वार्थसिद्धिके कर्ता हैं। इसी शिलालेखसे' यह भी ज्ञात होता है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था, बुद्धि की महत्ताके कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये, और देवोंने उनके चरणोंकी पूजाको इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ। श्रवणवेल गोलाके ही एक दूसरे शिलालेख न० १०८में भी उनका गुणगान १. 'यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो बुद्धघा महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः । श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥ १० ॥' -० शि० सं०, भा० १, पृ० २५ । २. 'श्री पूज्यपादो धृतधर्मराज्यस्ततो सुराधीश्वर पूज्यपादः । यदीयवैदुष्यगुणानिदानी वदन्ति शास्त्राणि तदुध्दृतानि ॥ १५ ॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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