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________________ २७२ : जेनसाहित्यका इतिहास शताब्दीसे प्राचीन माननेका कोई कारण नहीं है। योगसूत्र और उसके भाष्यके साथ तत्त्वार्थके सूत्रों और उसके भाष्यका शाब्दिक तथा आर्थिक सादृश्य बहुत है। तो भी दोनोंमेंसे किसी एकके ऊपर दूसरेका असर है यह भी इसी प्रकार कहना शक्य नहीं। .."ऐसा होते हुए भी तत्त्वार्थके भाष्यमें एक ऐसा स्थल है जो जैन अंग ग्रन्थों में इस समय तक उपलब्ध नहीं और योगसूत्रके भाष्यमें उपलब्ध है। (ग) अक्षपादका न्याय दर्शन इस्वी सन्के आरम्भके लगभगका रचा हुआ माना जाता है। उसका वात्स्यायन भाष्य दूसरी तीसरी शताब्दीके भाष्यकालकी प्रारम्भिक कृतियोंमेंसे एक कृति है। इस कृतिके कुछ शब्द और विषय तत्त्वार्थ भाष्यमें पाये जाते हैं। उक्त तुलनासे पण्डितजीने कोई निष्कर्ष तो नहीं निकाला है केवल इतना ही लिखा है कि ये बातें भी हमें उमास्वातिके उपयुक्त अनुमानित समयकी तरफ ही ले जाती हैं। फिर भी पं० जी के उक्त कथनसे भी तत्त्वार्थ सूत्रका रचना काल विक्रमकी तीसरी शाताब्दीका अन्त ही समुचित प्रतीत होता है । 'यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति तस्यैव शिथिल प्रकीर्णापचितस्य सर्वतो युगादादीपितस्य पवनक्रमाभिहतास्याशुदाहो भवति" यथा वा धौतपटो जलाद्रं एव च वितानित: सूर्यरश्मिवाय्वभिहतःक्षिप्रं शोषमुपयाति न च संहते।' .-तत्त्वार्थ भाष्य -२, ५२ । 'यथाऽर्द्र वस्त्रं वितानितं हसीयसा कालेन शुष्कत्तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सपिण्डितं चिरेण संशुष्येदेवं निरुपक्रमम् । ययावाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाग्निस्तृणराशी क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत् तथा निरुपक्रमम् ।' - योगभाष्य ३, २२ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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