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________________ तत्त्वार्थविषयक मूलसाहित्य : २७१ वजका स्वर्गवास समय वीरात् ५८४ उल्लिखित है । अर्थात् सुहस्तिके स्वर्गवास समयसे वज्रके स्वर्गवास समय तक २९३ वर्षके भीतर पांच पीढ़ियां उपलब्ध होती हैं। इस तरह सरसरी तौरपर एक-एक पीढ़ीका काल साठ वर्षका मान लेनेपर सुहस्तिसे चौथी पीढ़ीमें होनेवाले शान्ति श्रेणिकका प्रारम्भकाल वीरात् ४७१ आता है । इस समयके मध्यमें या थोड़ा आगे पीछे शान्ति श्रेणिकसे उच्चनागरी शाखा निकली होगी। वाचक उमास्वाति शान्ति श्रेणिककी ही उच्चानागर शाखामें हुए हैं ऐसा मानकर और इस शाखाके निकलनेका जो समय अनुमान किया गया है उसे स्वीकार करके यदि आगे चला जाये तो भी यह कहना कठिन है कि वा० उमास्वाति इस शाखाके निकलनके बाद कब हुए है ? क्योंकि अपने विद्यागुरु और दीक्षागुरुके जो नाम उन्होंने प्रशस्तिमें दिये हैं उनमेंसे एक भी कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमें या उस प्रकारकी किसी दूसरी पट्टावलीमें नहीं पाया जाता । इससे उमास्वातिके समय सम्बन्धमें स्थविरावलीके आधारपर यदि कुछ कहना हो तो अधिकसे अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे वीरात् ४७१ अर्थात् विक्रम सम्बत्के प्रारम्भके लगभग किसी समय हुए हैं, उससे पहले नही, इससे अधिक परिचय अन्धकारमें है।' __ इल तरहसे पं० सुखलालजीने उमास्वातिकी आदि अवधि विक्रम सम्वत्का प्रारम्भ निर्धारित की है और अन्तिम अवधि पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकाके आधारपर विक्रमकी पांचवीं शताब्दी निर्धारित की है । तथा उक्त विचार सरणिके अनुसार उनका प्राचीनसे प्राचीन समय विक्रमकी पहली शताब्दी और अर्वाचीनसे अर्वाचीन समय तीसरी चौथी शताब्दी बतलाया है और लिखा है कि इन तीन चारसौ वर्षोंके अन्तरालमें उमास्वातिका निश्चित समय शोधने का काम बाकी रह जाता है। उक्त शोधके सिलसिले में पं० जीने लिखा है (क) द्रव्य गुण तथा कालके लक्षणवाले तत्त्वार्थके तीन सूत्रोंके लिये उत्तराध्ययनके सिवाय किसी प्राचीन श्रेताम्बर जैन आगम अर्थात् अंगका उत्तराध्ययन जितना ही शाब्दिक आधार हो ऐसा अभी तक देखनेमें नहीं आया। परन्तु विक्रमकी पहली दूसरी शताब्दीके माने जानेवाले कुन्दकुन्दके प्राकृत वचनोंके साथ तत्त्वार्थके संस्कृत सूत्रोंका कहीं तो पूर्ण सादृश्य है ओर कहीं बहुत ही कम। ""इसके सिवाय कुन्दकुन्दके प्रसिद्ध ग्रन्थोंके साथ तत्त्वार्थ सूत्रका जो शाब्दिक और वस्तुगत महत्त्वका सादृश्य है वह आकस्मिक तो नहीं। (ख) यदि महाभाष्यकार और सूत्रकार पतंजलि एक हों तो योग सूत्र विक्रमके पूर्व पहली दूसरी शताब्दीका है ऐसा कहा जा सकता है । योग सूत्रका व्यासभाष्य कबका है वह भी निश्चित नहीं है। फिर भी उसे विक्रमकी तीसरी
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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