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२७० : जेनसाहित्यका इतिहास लिख आये हैं तत्त्वार्थ वातिकके प्रणेता अकलंकदेव तकका यह कहना है कि षट्खडागमके सूत्रोंके अनुसार तत्त्वार्थ सूत्रके सूत्रोंकी रचना हुई है । षट्खण्डागमका रचनाकाल विक्रमकी दूसरी शताब्दीका तृतीय चरण है अतः तत्त्वार्थ सूत्र उसके पश्चात् रचा गया है। ___ ३. श्रवण वेलगोलाके शिलालेखोंके अनुसार सूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति कुन्द-कुन्दके अन्वयमें हुए हैं और विद्वज्जन बोधकमें उद्धृत एक श्लोकके अनुसार वे कुन्द-कुन्दके समकालीन थे तथा उनका समय वीर निर्वाण सम्बत् ७७० (वि० सं० ३००) था । कुन्द-कुन्दके अन्य उल्लेखोंके अनुसार इस समयकी संगति ठीक बैठ जाती है। यह हम पहले कुन्दकुन्दका समय निर्णीत करते समय विस्तारसे लिख चुके हैं और यह भी लिख आये हैं कि तत्त्वार्थ सूत्रपर कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका भी प्रभाव है । अतः कुन्द-कुन्दके पश्चात् उन्हींके समकालमें तत्त्वार्थ सूत्र कारका होना समुचित प्रतीत होता है । अतः विक्रमकी तीसरी शताब्दीके अन्तमें तत्त्वार्थ सूत्र रचा गया है।
श्री० पं० सुखलालजीने तत्त्वार्थ सूत्र विवेचनकी हिन्दी भूमिकामें उमास्वातिके समयके सम्बन्धमें विचार करनेके लिए तीन बातोंका उपयोग किया हैशाखानिर्देश, प्राचीनसे प्राचीन टीकाकारों का समय और अन्य दार्शनिक ग्रन्थोंकी तुलना । तीनोंका विवेचन करते हुए पंडितजीने लिखा है
१. प्रशस्तिमें जिस 'उच्च गर शाखा' का निर्देश है वह शाखा कब निकली यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, तो भी कल्प सूत्रकी स्थविरावलीमें उच्चानागरी शाखाका उल्लेख है और लिखा है कि यह शाखा आर्य शान्ति श्रेणिकसे निकली है। आर्य शान्ति श्रेणिक आर्य सुहस्तीसे चौथी पीढ़ीमें आते हैं तथा यह शान्ति श्रेणिक आर्य वजके गुरु आर्य सिंह गिरिके गुरुभाई होनेसे आर्य वज्रकी पहली पीढीमें आते हैं । आर्य सुहस्तिका स्वर्गवास वीरात् २९१ और
समन्वयमें उसके नीचे १४ गुणस्थानोंके नाम दिये हैं जिनके साथ उक्त सूत्रका कोई सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। किन्तु षट्खण्डागम (पु० १२, १० ७८) के मूलमें दो गाथाएं ऐसी है जिनके आधारपर ही उक्त सूत्र रचा गया है। दोनों गाथाएं इस प्रकार है-सूत्रसे तुलना करें । 'सम्मत्तुप्पत्ती विय सावय-विरदे अणंतकम्मसे । दसंणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते ॥७॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा । तन्विरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ।।' 'सम्यग्दृष्टि श्रावक विरतानन्त वियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४५॥