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________________ तत्त्वार्थविषयक मूलसाहित्य : २६९ अपनाया है, न उसमें कोई पाठान्तर है और न मतान्तर है । किन्तु सर्वार्थ सिद्धिमें दो पाठान्तर पाये जाते हैं । दूसरे अध्यायके अन्तिम सूत्रमें 'चरमोत्तम देहा' पद आता है उसकी व्याख्या करते हुए पूज्यवाद ने 'चरम देहा इति वा पाठ: ' ऐसा लिखा है । भाष्य मान्य सूत्र पाठमें, चरमदेहोत्तमपुरुषा' पाठ है । और भाष्यमें उसका अर्थ 'चरम देहा उत्तम पुरुषाः' किया है । अतः सर्वार्थसिद्धिमें दिया गया उक्त पाठान्तर भाष्यमान्य सूत्रपाठका तो नहीं है । दूसरा पाठान्तर प्रथम अध्यायके 'बहुबहुविधि' आदि सूत्रकी टीकामें है । यह पाठान्तर पूर्व पाठान्तरसे बहुत स्पष्ट है । इसका निर्देश 'अपरेषां क्षिप्रनिसृत इति पाठः' के रूपमें किया गया है। जिसका अर्थ होता है कि दूसरोंके मतसे क्षिप्रानिसृतके स्थान में क्षिप्रनिसृत पाठ है । यहाँ पूज्यपाद स्वामी ने केवल पाठान्तरका ही निर्देश नहीं किया किन्तु 'त एवं वर्णयन्ति' लिखकर वे उसकी जो व्याख्या करते हैं उसे भी दिया है । भाष्यमान्य सूत्र पाठ में 'क्षिप्रानिश्रित' पाठ है । अतः यह पाठान्तर भी उसका नहीं है । इन दो पाठान्तरोंसे और विशेषतया दूसरे पाठान्तरसे यह स्पष्ट है कि पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थ सूत्र की अन्य प्रतियां भी थीं और उनमें ऐसी प्रति भी थी जिसमें सूत्रकी व्याख्या या टिप्पणी वगैरह भी थी । क्योंकि उसके विना 'त एवं वर्णयन्ति' जैसी बात नहीं लिखी जा सकती । अतः सर्वार्थ सिद्धि को दिगम्बरीय सूत्र पाठकी आद्य टीका तथा उसके रचयिता पूज्यपादको दिगम्बरीय सूत्र पाठका प्रवर्तक और भाष्य मान्य सूत्र पाठको मूल सूत्र पाठ कहना निर्भ्रान्त नहीं है । और भ्रान्त धारणाओंके आधार पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता । फिर भी जो सूत्र दोनों सूत्र पाठोंमें समान हैं उनके आधार पर सूत्रकारकी मान्यताएँ दिगम्बर परम्पराके ही अनुकूल ठहरती हैं, यह हम ऊपर लिख आये हैं । सूत्ररचनाका समय अब हम तत्त्वार्थ सूत्रकी रचनाके समयपर विचार करेंगे । १. दिगम्बर सूत्र पाठपर उपलब्ध आद्य टीका सर्वार्थ सिद्धि है और सर्वार्थ सिद्धि के रचयिता पूज्यपाद देवनन्दिका समय विक्रमकी पांचवीं शताब्दीका उत्तरार्ध और छठीका पूर्वार्ध है । अतः तत्त्वार्थ सूत्र विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीके उत्तरार्ध से पूर्व रचा जा चुका था, यह सुनिश्चित है । २. षट्खण्डागमके' कतिपय सूत्रोंका तत्त्वार्थ सूत्रपर प्रभाव है यह पहले १. इस विषयमें एक और भी उदाहरण यहाँ उपस्थित किया जाता है जो पीछे नहीं दिया जा सका । त० सू० (९-४५) 'सम्यग्दृष्टि श्रावक' आदि सूत्रके उद्गमका मूल श्वे० आगमोंमें नहीं मिलता । इसीसे 'तत्त्वार्थ सूत्र जैनागम
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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