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२६८ : जैनसाहित्यका इतिहास विहारमें कुछ कठिनाईयाँ उपस्थित होने लगी थी। ऐसा उन्होंने षट्प्राभृतकी' अपनी टीकामें स्पष्ट लिखा है । श्रुतसागरजी के उक्त कथन के मूलमें इन सब बातों का भी प्रभाव प्रतीत होता है। अतः उसे आर्षमत नहीं माना जा सकता। और इसी लिये पुलाकादि मुनियों की चर्चाको दिगम्बर परम्पराके प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता।
अतः उक्त सूत्रोंके आधारपर तत्त्वार्थसूत्रको दिगम्बर परम्पराके प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता।
मल सत्र पाठ-किन्तु तत्त्वार्थ सूत्रके दो सूत्र पाठ प्रचलित हैं, यह ऊपर लिख आये हैं । अतः तत्वार्थ सूत्रकी परम्राका निर्णय करते समय यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि मूल सूत्र पाठ दोनोंमेंसे कौनसा है ?
श्वेताम्बर परम्परा मान्य सूत्र पाठ पर तथोक्त स्वोपज्ञ भाष्य है और उसके अन्तमें ग्रन्थकारने अपनी प्रशस्ति भी दे दी है। अतः जो कोई भी प्रशस्तिको देखकर यही कहेगा कि मूल सूत्रपाठ यही है। उधर दिगम्बर परम्पराके प्रमुख टीकाकारों ने सूत्रकारका नाम तक नहीं दिया और न उनके सूत्र पाठ पर कोई तथोक्त स्वोपज्ञ भाष्य ही है। उसपर आद्य टीका लिखनेवाले पूज्यपाद जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता हैं, उन्हें सूत्र रचना करनेका अभ्यास हैं, उनकी लेखन शैली प्राञ्जल और महा भाष्यकार पतञ्जलिकी शैलीकी अनुगामिनी तथा दार्शनिकतासे
ओत प्रोत है। उधर तत्त्वार्थ भाष्यके रचयिताकी शैलीमें वे सब बातें नहीं हैं। इन सब बातोंके आधारपर दिगम्बर सूत्र पाठको पूज्यपादके द्वारा संवर्धित और परिष्कृत तथा उसकी आय टीक सर्वार्थसिद्धिको भाष्यसे अर्वाचीन कहा जाना सरल है। किन्तु तथोक्त स्वोपज्ञ भाष्यके सूत्रकार रचित होनेमें जो अनेक विप्रतिपत्तियां है उन्हें पहले लिखा जा चुका है और उनके रहते हुए निर्विवाद रूपसे यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भाष्य स्वोपज्ञ ही है। और इसलिए भाष्यकी स्वोपज्ञताके आधार पर उसके सूत्र पाठको भी मूल सूत्र पाठ नहीं कहा जा सकता।
यह भी हम पहले लिख आये हैं कि भाष्य मान्य सूत्र पाठ भाष्यके होते हुए भी एकरूपताको लिये हुए नहीं है, उसके सम्बन्धमें पाठान्तरों और मतान्तरोंका बाहुल्य है। उधर दि० परम्पराको मान्य सूत्र पाठमें अविच्छिन्न एक रूपता है जिस सूत्रपाठपर पूज्यपादने सर्वार्थ सिद्धि रची, उसी सूत्रपाठको आज तकके टीकाकारोंने १. 'को अपवादवेषः ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति
तेन मण्डप दुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिस्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीससादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः ।