SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थविषयक मूलसाहित्य : २६७ उन्होंने परीषहका सद्भाव केवलीके उपचारसे माना है। फिर 'अथवा' कहकर 'एकादशजिने' सूत्र में 'न सन्ति' वाक्यकी कल्पना करनेका विधान किया है। संभवतया अकलंकदेव को 'न सन्ति' का अध्याहार समुचित प्रतीत नहीं हुआ अतः उन्होंने अपने तत्त्वार्थवातिक में 'कश्चित् कल्प्यन्ते' वाक्यका अध्याहार किया है। जिसका मतलब होता है कि 'कोई लोग जिनके ग्यारह परीषह मानते हैं' । उक्त समाधानों से पाठकको ऐसा लगना स्वाभाविक है कि उस सूत्र का अर्थ करनेमें, दि० टीकाकारोंको थोड़ा खींचातानी करनी पड़ी है। किन्तु कर्मसिद्धान्तके अभ्यासीको वैसा प्रतीत नहीं हो सकता। इसके स्पष्टी करणके लिये सर्वार्थसिद्धिकी पं० फूलचन्द्रजी लिखित प्रस्तावना (पृ० २८-२९) देखना चाहिये। उक्त तथोक्त खींचातानीसे कमसे कम पूज्यपादपर लादे जानेवाले इस दोष में कि' उन्होंने उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्रके पाठ में संशोधन और परिवर्तन किया, कुछ तो परिमार्जन हो जाना चाहिये । अस्तु, दूसरा सूत्र है नौवें अध्यायका पुलाक वकुश आदि पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थोंका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र । यह ठीक है कि मूलाचार और भगवती अराधनामें पुलाकादिका कथन नहीं है और न कुन्दकुन्द ने ही उनका कथन किया है। किन्तु इसपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि निर्ग्रन्थोंके ये भेद दिगम्बर परम्पराको मान्य नहीं । हाँ, उनमेंसे आदिके पुलाक मुनि अपने मूलगुणोंमें परिपूर्ण नहीं होते । प्रारम्भमें ऐसा होना संभव है। इसी प्रकार वकुशमुनिको अपने शरीरादिका मोह भी रह सकता है। उसका निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनियोंकी चर्याके साथ विरोध नहीं है । हाँ, श्रुतसागरजीने जो 'संयमश्रुत' आदि सूत्रकी व्याख्यामें यह लिखा है कि असमर्थ मुनि शीतकालादिमें वस्त्रादि भी ग्रहण करते हैं और इसे कुशील मुनिकी अपेक्षा भगवती आराधनाके अभिप्रायके अनुसार बतलाया है वह ठीक नहीं है । भगवती आराधनामें इस तरह का कोई विधान नही है । हाँ टीकाकार अपराजित सूरिने लिखा है कि विशेष अवस्थामें अशक्त साधु वस्त्र आदि ग्रहणकर सकते थे । उसीको श्रुतसागरजी ने भगवती आराधनाके नामसे लिख दिया है । श्रुतसागरजीके समयमें दिगम्बर परम्पराके भट्टारक वस्त्र धारण करने लगे थे। यद्यपि वे साधु नहीं माने जाते थे तथापि उनकी प्रतिष्ठा वैसी ही थी। मुसलमानों के उपद्रवों के कारण भी साधुओं के नग्न १. जै० सा० इ०, पृ० ५४२ । तथा पं० सुखलालजी की तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना । २. तत्वा० वृ० पृ० ३१६ । ३. भ० म० अचे० घ०, पृ० २६ आदि ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy