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२६६ : जेनसाहित्यका इतिहास
ध्ययन आदिमें फुटकर - फुटकर मिलतीं हैं । इसके विपरीत भगवती आराधनामें ( गा० १७१५ - १८७१ ) तथा मूलाचारके आठवें परिछेदमें बारह अनुप्रेक्षाओंका क्रमवार विस्तृत वर्णन मिलता है । कुन्दकुन्दाचार्यने भी ' वारस अणुवेक्खा' नामसे बारह अनुप्रेक्षाओंका क्रमसे वर्णन किया है । और इन तीनों ग्रन्थोंमें बारह अनुक्षाओंको गिनाने वाली गाथा एक ही है । उससे तत्त्वार्थसूत्रके केवल क्रममें अन्तर है । पहली अनुप्रक्षाका नाम उक्त ग्रन्थोंमें अध्रुव है और तत्त्वार्थ में अनित्य है । अध्रुव और अनित्यके अर्थमें कोई अन्तर नहीं है ।
अतः बारह अनुप्र ेक्षा परक सूत्र भी उक्त तथ्यका ही समर्थक है । त० सू० के नौवें अध्यायके नौवें सूत्रमें बाईस परीषहोंके नाम गिनाये हैं । उनमें एक नाग्न्य परीषह भी है । नाग्न्यका स्पष्ट अर्थ नंगापना है | आगमोंमें उसके स्थानमें 'अचेल ' परीषह पाई जाती है । अचेलका मतलब है वस्त्रका अभाव । यद्यपि उसका मतलब भी वही है जो 'नाग्न्य' का है । तथापि अचेलकी अपेक्षा 'नाग्न्य' शब्दसे नग्न रहनेका स्पष्ट बोध होता है । जिससे प्रतीत होता है कि सूत्रकारको साधुओंकी नग्नता इष्ट थी, इसीसे उन्होंने आगमिक 'अचेल’ परीषहके स्थानमें नाग्न्यको स्थान देना उचित समझा ।
तत्त्वार्थसूत्र में बाईसवीं परीषहका नाम अदर्शन परीषह है । किन्तु आगमिक' साहित्यमें दर्शनपरीषह या सम्मत्तपरीषह नाम मिलता है । तथा त० सू० ( ९ - १७) में एक जीव के एक साथ एक से लेकर १९ परीषह तक बतलाई है। किन्तु 'उत्तराध्ययननियुक्ति में २० परीषहोंका सद्भाव बतलाया है ।
अतः उक्त कतिपय तथ्योंके प्रकाश में यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्रकार श्वेताम्बर परम्परा के थे या दिगम्बर परम्परा के नहीं थे । प्रत्युत उक्त तथ्यों से तो उनके दिगम्बर परम्परा के होने का ही समर्थन होता है ।
श्रीयुत' प्रेमीजी ने मूल सूत्रों में से दो सूत्रोंको दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टि से खटकनेवाला बतलाया है । उनमें से एक सूत्र है नौवें अध्यायका 'एकादशजिने' । इसका सीधा अर्थ है - जिन भगवानके ग्यारह परीषह होती हैं ।
किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय केवली के परीषह नहीं मानता, इस लिये टीका - कार पूज्यपादने शंका उठाकर उसका समाधान दो प्रकार से किया है । प्रथम तो
१. तत्त्व० जैनागम०, पृ० १८३ ।
२. बीसं उक्कोसपरा वदंति जरन्नओ हवइ एक्को । सीउसिणचरियं निसी हिया य जुगवं न वदंति ॥ ८२ ॥ - उत्त० नि० ।
३. जै० सा० इ०, पृ० ५३८ ।
४. सर्वार्थ सि० सू० ९-११ ।