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तत्त्वार्थविषयक मूलसाहित्य : २६५ दसणविणए आवस्सए अ सीलव्वए निरइचारो । खणलव तवच्चियाए वेय्यावच्चे समाही य॥ अपुन्वनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पहावणया । एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो।
-ज्ञाताधर्मकथा-अ० ८, सू० ६४ । 'अर्हद्वत्सलता, सिद्धवत्सलता, प्रवचनवत्सलता, गुरुवत्सलता, स्थविरवत्सलता, बहुश्रुतवत्सलता, तपस्विवत्सलता, अभीक्षा ज्ञानोपयोग, दर्शननिरतिचारता, विनय निरतिचारता, आवश्यक निरतिचारता, शीलनिरतिचारता, व्रतनिरतिचारता, क्षणलव समाधि, तपः समाधि, वैयावृत्य समाधि, अपूर्वज्ञानग्रहण, श्रुतभक्ति और प्रवचन प्रभावना, इन कारणोंसे जीव तीर्थकरत्वको प्राप्त करता है।' ___ भाष्यकारने' अपने भाष्यमें प्रवचन वत्सलताका अर्थ अर्हत् शासनके अनुष्ठान करने वाले श्रुतधरोंका तथा बाल, वृद्ध, तपस्वी, शैक्ष ग्लानादिका संग्रह, उपग्रह अनुग्रह करना बतलाया है और संभवतया इस तरहसे आगमोक्त कुछ कारणोंका संग्रह करनेका प्रयत्न किया है। ___इसीसे उसकी कामें सिद्धसेन गणिने भी लिखा है कि-'तीर्थङ्करनाम कर्मके बीस कारणोंमें से सूत्रकारने कुछ सूत्रमें कुछ भाष्यमें और कुछ आदिग्रहणसे सिद्ध पूजा और क्षणलव समाधिका ग्रहण किया है । व्याख्याताको इनका उपयोग करके व्याख्यान करना चाहिये ।' किन्तु सूत्रकारको षट्खण्डागमकी तरह सोलह संख्या ही मान्य प्रतीत होती है जो दिगम्बर परम्परा सम्मत है, क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्दने भी यद्यपि कारणोंको नहीं गिनाया तथापि उनकी संख्या सोलह ही मान्य की है । अतः उक्त सूत्रका आधार दिगम्बर परम्परा सम्मत ही होना चाहिए।
त० सू० ( ९-७ ) में बारह अनुप्रेक्षा बतलाई है। उपलब्ध आगमोंमें कहीं भी बारह अनुप्रेक्षाएं पूरी नहीं मिलती। स्थानांगसूत्र, सूत्रकृतांग, उत्तरा-. १. 'अर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बालवृद्धतपस्विशक्षग्लानादीनां च
सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति ।'--त० सू० भा०, ६-२३ । २. "विंशतः कारणानां सूत्रकारेण किञ्चित् सूत्र किञ्चित् भाष्ये किञ्चित् आदि
ग्रहणात् सिद्धपूजाक्षणलवध्यानभावनाख्यमुपातं उपयुज्य च प्रवक्ता
व्याख्येयम् ।'–सि० ग० टी०-६-२३ । ३. "विसयविरतो समणो छद्दसवरकारणाइ नाऊणं । तित्थरनामकम्मं बंधह
अचिरेण कालेण ॥' ७७ ॥-भा० प्रा० । ४. तत्त्वा० जैनागम०-१०-१८१ ।