SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ : जेनसाहित्यका इतिहास निर्देश किया है और लिखा है कि वह सूत्र उसके अनुसार कहा गया है।' इससे प्रकट होता है कि अकलंकदेव तत्त्वार्थ सूत्रको या उसके सूत्रोंको षट्खण्डागमके आधारपर रचित मानते थे। तत्वार्थ सूत्रका आधार षट्खण्डागमके सूत्र रहे हैं इस बातकी पुष्टिमें एक और उल्लेखनीय प्रमाण है। त० सू० के छठे अध्यायमें तीर्थङ्कर नाम कर्मके बन्धनमें कारण भूत सोलह कारणोंका निर्देश इस प्रकार है दर्शनविशुद्धि' विनयसम्पन्नता शीलवतेष्व' नातिचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसंवेगौ५ शक्तितस्त्याग तपसी साधु समाधिर्वयावृत्यकरणम'हृदा. चार्य बहुश्रुत२ प्रवचन 3 भक्तिरावश्यका'४ परिहाणिर्मागप्रभावना'५ प्रवचनवत्सलत्व मिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥ षट्खण्डागमके बन्ध स्वामित्वविचयमें भी प्रायः ये ही सोलहकारण गिनाये हैं। 'दंसणविसुज्झदाए' विणयसंपण्णदाए' सीलब्वदेसुणिरदि चारदाए आवास एसु अपरिहीणदाए खणलव५ पडिबुझणदाए लद्धिसंवेग संपण्णदाए'जधाथामे तथा तवे साहूणं पासुअपरिचागदाए' साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुदाए० अरहंतभत्तीए" बहुसुदभत्तीए१२ पवयण 3. भत्तीए पवयणवच्छलदाए'४ पवयणप्प'५भावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधति ॥४१॥" -षट् खं०, पु०८, पृ० ७९ । उक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वाथसूत्र और षट्खण्डागममें प्रतिपादित तीर्थङ्कर नाम कर्मके कारणोंकी केवल संख्यामें ही समानता नहीं है किन्तु कारणोंमें भी समानता है । केवल एक ही कारण ऐसा है जिसमें अन्तर प्रतीत होता है। तत्वार्थसूत्र में आचार्य भक्ति नामक एक कारण गिनाया है और षट्खं में क्षणलव प्रतिबोधनता नामका कारण गिनाया है। दोनोंके क्रममें भी थोड़ा अन्तर है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खं० के उक्तसूत्रको सामने रखकर ही त० सू० के उक्तसूत्रकी रचना की गई है। तत्त्वार्थसूत्रके वे सूत्र पाठमें केवल साधुसमाधिके स्थानमें संघसमाधि तथा वैयावृत्यकरणके स्थानमें साधुवैयावृत्यकरण पाठ है। किन्तु इन पाठ भेदोंसे दोनोंमें कोई मौलिक अन्तर नहीं आता। परन्तु वेताम्बर आगममें तीर्थङ्कर नामकर्मके बन्धके कारणोंकी संख्या बीस बतलाई है । यथा अरिहंतसिद्ध पवयण गुरुयेरबहुस्सुए तबस्सीसु । बच्छलया य एसिं अभिक्खणाणोवोगे अ॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy