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________________ तत्त्वार्थविषयक मूलसाहित्य : २६३ पांचवें अध्यायमें द्रव्योंके विषयमें जो कथन किया गया है वह कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय और नियमसारमें प्रायः सब वणित है। तत्त्वार्थसूत्रमें 'उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत्' सद्रव्यलक्षणम् और 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इन तीन सूत्रोंके द्वारा द्रव्यके लक्षणका विधान किया है। श्वे० पाठमें 'सद्व्यलक्षणं' सूत्र नहीं है। ये तीनों सूत्र कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकायकी गाथामें बीज रूपसे ज्योंके त्यों विद्यमान हैं । मानों सूत्रकारने उन्हें वहाँसे उठाकर सूत्र रूपमें निबद्ध कर दिया है । गाथा इस प्रकार है दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादवयधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हु ॥१०॥ पं० सुखलालजीने भी इस बातको स्वीकार करते हुए लिखा है कि ये सूत्र कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकायकी गाथामें पूर्णरूपसे विद्यमान है । इसके सिवाय कुन्दकुन्दके प्रसिद्ध ग्रन्थोंके साथ तत्वार्थ सूत्रका जो शाब्दिक तथा वस्तुगत महत्वका सादृश्य है वह आकस्मिक तो है ही नहीं।' (त० सू० प्रस्ता०, पृ० ११-१२)। उत्तराध्ययन सूत्रके जिस २८वें अध्ययनको पं० सुखलालजी तत्त्वार्थ सूत्रकी रचनाका आधार बतलाते हैं उसमें तो 'गुणाणमासवो दव्वं' यह द्रव्यका लक्षण बतलाया है अर्थात् जो गुणोंका आश्रय है वह द्रव्य है। अन्य किसी प्राचीन श्वेताम्बर आगम में भी इस प्रकारका लक्षण नहीं पाया जाता, यह बात भी पं० सुखलालजीने स्वीकार की है। उन्होंने लिखा है-ऊपर दिये गये द्रव्य, गुण और कालके लक्षणवाले तत्त्वार्थके तीन सूत्रोंके लिये उत्तराध्ययनके सिवाय किसी प्राचीन श्वेताम्बर जैन आगम अर्थात् अंगका उत्तराध्ययन जितना ही शाब्दिक आधार हो ऐसा अभीतक देखने में नहीं आया ।' अतः उक्त सूत्रोंपरसे यह व्यक्त होता है कि तत्त्वार्थ सूत्रपर कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका विशेष प्रभाव है। पाँचवे अध्यायके अन्तमें स्निग्ध और रूक्ष गुणवाले परमाणुओं के बन्धका विधान है। उसको लेकर दिगम्बर परम्परामें 'बन्धेऽधिको पारिणामिको।' ।।३६॥' सूत्र है और श्वेताम्बर परम्परामें 'बन्धे समाधिको परिणामिको ।' पाठ है । उक्त ३६वें सूत्रकी टीकामें अकलंकदेवने' 'समाधिको' पाठको आर्ष विरुद्ध कहा है और आपके रूपमें षट्खण्डागमके वर्गगाखण्डके बन्ध विधानका १. 'एवं हि उक्तमा वर्गणायां बन्धविधाने-नोआगम-द्रव्यबन्धविकल्पे सादिवस्रसिक बन्धनिर्देशे प्रोक्तम्-'विषमस्निग्धतायां विषमरूक्षतायां च बन्धः समस्निग्धतायां समरूक्षतायां च भेदः तदनुसारेण च सूत्रमुक्तम् ।' -त० वा०, पृ० ५००
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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