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२६२ : जैनसाहित्यका इतिहास सू० के० श्वे० सूत्र पाठमें 'नारकदेवानां' लिखकर नारकियोंको देवोंसे पहले रखा है। यह क्रम उक्त दिगम्बर तथा श्वेताम्बर आगमोंमेसे किसी से भी मेल नहीं खाता।
आचार्य कुन्दकुन्दने' ज्ञानके मति आदि पाँच भेद बतलाये हैं तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका उल्लेख प्रवचनसार (१-५८) में किया है। और तदनुसार त० सू० में भी ज्ञानके पांच भेदोंका तथा उन्हें प्रमाण बतलाकर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंमें उनके अन्तर्भावका कथन किया है !
मति ज्ञानका प्राचीन आगमिक नाम अभिनिबोध था और मति उसका नामान्तर था । षट्खण्डागममें, कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकायमें और नन्दि सूत्र वर्गरहमें अभिनिबोध नाम ही मिलता है। तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ताने उसके स्थानमें मतिको स्थान देकर अभिनिबोधको उसका नामान्तर बतलाया और तबसे अभिनिबोध नाम लुप्त जैसा हो गया।
अब हम दूसरे अध्यायकी ओर आते हैं ।
दूसरे अध्यायके प्रारम्भमें जीवके पाँच भावों और उनके भेद प्रभेदोंका कथन है। स्थानांग सूत्रमें जीवके छ भाव बतलाये हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक । किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र में सान्निपातिक भावको नहीं गिनाया। सिद्धसेन गणिने अपनी टीकामें 'मित्र' शब्दसे सान्निपातिकका ग्रहण मानकर सन्तोष कर लिया है।
हाँ, अकलंक देवने सान्निपातिकका अभाव बतलाकर भी मिश्र शब्दसे उसका ग्रहण करते हुए दोनों परम्पराओंका समन्वय करनेका प्रयत्न किया है।
'विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुभ्यः ।' इस सूत्रमें सूत्रकारने चार समय वाली गतिका निर्देश किया है। इसपरसे सिद्धसेनगणिने उक्त सूत्रकी टीकामें लिखा है कि पांच समयवाली भी गति होती है किन्तु सूत्रमें उसका ग्रहण नहीं किया है । दिगम्बर परम्परामें पांच समयवाली गतिका विधान ही नहीं है । अतः उक्त सूत्र दिगम्बर परम्परा सम्मत हैं ।
१. 'आभिणिसुदोहि मण केवलाणि णाणाणि पंच भेदाणि' ॥४१।। पञ्चास्तिक २. स्था० सू०, स्थान ६, सू० ५३७ । ३. 'सान्निपातिकोऽपि लाघवेषिणा पृथक् नोपात्तः मिश्रग्रहणादेव प्रतिलब्धः ।'
सि० ग० टी०, भा० १, पृ० १३७ । ४. 'तथा पञ्चसमयाऽपि गतिः संभवति न चोपात्ता सूत्रे ।'
-सि० ग० टी० भा० १, पृ० १८४ ।