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२६० : जैनसाहित्यका इतिहास हैं वे आश्चर्य जनक हैं । ये मत भेद केवल भाष्यके वाक्योंको गलतीसे सूत्र समझ लेनेके ही कारण नहीं हुए है। ये सब सूत्र पाठकी अस्थिरताके सूचक है। तत्त्वार्थ सूत्रकी रचनाका आधार ___ तत्त्वार्थ सूत्रकी रचनाका आधार खोजनेके दो उद्देश्य हैं, प्रथम तो उससे उसकी रचनाके समयपर प्रकाश पड़ सकेगा। दूसरे उससे सूत्रकारकी परम्परा पर भी प्रकाश पड़ सकेगा। इस तुलनात्मक अध्ययनके द्वारा अनेक सैद्धान्तिक तथ्य भी प्रकाशमें आसकेंगे । किन्तु यहां हमारा उनसे विशेष प्रयोजन नहीं है ।
१ तत्त्वार्थ सूत्रका आरम्भ 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्रसे होता है । श्वे० परम्पराके उत्तराध्ययन नामक सूत्रका २८ वां अध्ययन मोक्ष मार्ग नामका है । पं० 'सुखलाल जी उसी अध्ययनको तत्त्वार्थ रचनेकी कल्पनाका आभारी मानते हैं । उसकी दूसरी गाथामें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपको मोक्षका मार्ग कहा है। यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्रके नौवें अध्ययनमें तपका भी वर्णन है किन्तु सूत्रकारने उसे चारित्रमें गभित करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको मोक्षका मार्ग कहा है। .
उधर आचार्य कुन्द-कुन्द ने अपने नियमसारको आरम्भ करते हुए कहा है कि-'जिन शासनमें मार्ग और मार्ग फलको कहा है मोक्षके उपायको मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण है ॥ तथा ज्ञानदर्शन और चारित्रको नियम कहते है
और मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र का परीहार करनेके लिये उसके साथ सार' पद लगाया है। इन तीनोंमेंसे प्रत्येकका कथन यहां किया जाता है।' तत्त्वार्थ सूत्रमें भी मिथ्या दर्शनादिका परिहार करनेके लिये दर्शनादिके साथ सम्यग्' पद लगाया है।
२. तसू० के १-२ सूत्रमें तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है और जीव अजीव आदि सात तत्त्व बतलाये हैं । उत्तराध्ययनके उक्त २८३ अध्ययनमें जीव
१. तसू०को प्रस्तावना पृ० ५१का टिप्पण नं० ४। २. 'मोक्खमग्ग गई तच्चं सुणेह जिण भासियं । चउकारणसंजुतं नाण सण
लक्खणं॥१॥ नाणं च दसंणं चेव चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गा त्ति पन्नतो
जिणेहि वरदसिहिं ॥२॥'-उत्तरा० ३. जीवाजीवा य बंधो य पुनपावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए
तहिया नव ॥१४॥-तहियाणं तु भावाणं, सव्वभावे उवएसणं । भावेण सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियां ॥१५॥-उत्तरा० । 'नव सम्भाव पयत्था पण्णत्ते । तं जहा-स्था० ९,मू० ६६५ ।