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२५८ : जैनसाहित्यका इतिहास कर खेदखिन्न होते हुए सूत्रमें 'मनुष्यादि' पदके ग्रहणको अनार्ष कहते हैं । अन्य बकवादी इस सूत्रके पश्चात् 'अतीन्द्रियाः केवलिनः' ऐसा सूत्र रखते हैं।
६. औदारिक "शरीराणि ॥२-३७॥ इस सूत्रकी टीकामें सिद्धसेनने लिखा' है कि कुछ आचार्य इस सूत्रके एक अंश 'शरीराणि'को पृथक सूत्र मानते हैं ।
७. 'लब्धि प्रत्ययञ्च॥४८॥' सूत्रके पश्चात् दिगम्बर सूत्र पाठमें 'तैजसमपि' सूत्र आता है। भाष्यमें यह सूत्र रूपसे नहीं छपा है। हरिभद्रकी टीकामें 'शुभविशुद्धा इत्यादि सूत्रके बाद यह सूत्र रूपसे आया है । सिद्धसेनकी टीकाकी मुद्रित प्रतिकी टिप्पणीमें इसे क० ख० प्रतिमें सूत्र बतलाया है । श्वे० तत्त्वार्थाधिगम सूत्रकी जो सटिप्पण प्रति पाई जाती है उसमें 'तैजसमपि'को भी सूत्र माना है।
८. सिद्धसेन गणिका कहना है कि कोई सूत्र २-४९ के अन्तमें 'अकृत्स्नश्रुतस्यद्धिमतः' इतना विशेषण और जोड़ते हैं ।
९. सिद्धसेन गणिका कहना है कि किन्हींका ऐसा मत है कि सूत्र १-५२में सूत्रकारने 'उत्तम पुरुष' पदका ग्रहण नहीं किया है।
१०. तत्त्वार्थधिगम सूत्रकी सटिप्पण प्रतिमें तीसरे अध्यायके प्रथम सूत्रके पश्चात् 'धर्मावंशाशलाजनारिष्टामाघव्यामाघवीति च' ऐसा सूत्र पाया जाता है।
११. सिद्धसेनकी वृत्तिमें सूत्र ३-११ में 'वर्षधर पर्वताः' के स्थानमें 'वंशधर पर्वताः' पाठ पाया जाता है। तथा हरिभद्रकी टीकामें और मुद्रित भाष्य प्रतिमें आर्या म्लेच्छाश्च ॥१५॥ के स्थानमें 'आर्या म्लिशश्च' सूत्र पाया जाता है ।
१२. तत्त्वार्थाधिगमकी टिप्पण वाली प्रतिमें सूत्र ४-२२ के पश्चात् 'उछ्वासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः' ऐसा सूत्र है।
१३. सिद्धसेनने पांचवे अध्यायके 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।।३॥' के संबंध १. 'अत्र केचित् सूत्रावयवमवच्छिद्य शरीराणीति पृथक् सूत्र कल्पयन्ति' ।
वही, पृ० १९५ । २. पृ० २०८। ३. 'अतएव केचिदपरितुष्यन्तः सूत्रमाचार्यकृतन्यासादधिकमभिधीयते-'अकृत्स्न
श्रुतस्याद्धिमतः' । सि० ग० टी०, भा० १, पृ० २०९।। ४. 'केचिदभिदधते-नास्ति सूत्रकारस्योत्तमपुरुषग्रहणमिति ।'-वही, पृ० २२१ । ५. 'अपरे द्विधा भिन्दन्ति सूत्रम् 'नित्यावस्थितानि'""ततोऽरूपाणि ।'........
अत्रापरे व्याचक्षते यत्कञ्चिदेतत् 'नित्यावस्थितारूपाणि इत्येव पाठे लम्यत एवाभिलषितोर्थः'-वही, पृ० ३२१ ।