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________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २५७ टीकामें अनेक पाठ भेदोंका उल्लेख किया है। यहां उनका थोड़ा सा दिग्दर्शन करा देना उचित होगा। प्रथम अध्याय के १६ वें सूत्रमें मुद्रित भाष्य प्रतिमें-'क्षिप्रानिसृतानुक्तध्रुवा' पाठ है और भा यमें भी 'अनुक्तमवगृह्णाति उक्तमवगृह्णाति' तदनुकूल ही पाठ है। किन्तु सिद्धसेनगणिकी टीकावाली मुद्रित प्रतिके सूत्रमें तथा भाष्य में 'अनुक्त' के स्थान पर 'असन्दिग्ध' पाठ पाया जाता है। किन्तु सिद्धसेनकी टीकामें अनुक्त उक्तकी ही व्याख्या है जिससे प्रतीत होता है कि उन्हें यही पाठ मान्य था। तथा उन्होंने इनके स्थानमें एक तीसरे 'निश्चित' और 'अनिश्चित' पाठान्तरका निर्देश किया है। इस तरहसे तीन पाठ भेद पाये जाते हैं । दिगम्बर परम्परामें केवल एक 'अनुक्त' पाठ ही प्रचलित है । २. इसी अध्यायके २७वें सूत्रमें 'सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' पाठ है । किन्तु २०वें सूत्रके भाष्यमें जो २७वें सूत्रका अंश उद्धत है उसमें 'सर्व' पद नहीं है, यथा'वक्ष्यति द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' । दिगम्बरीय पाठमें भी इस सूत्रमें जिसकी क्रम संख्या २६ है 'सर्व' शब्द नहीं पाया जाता । ___३. दूसरे अध्यायके 'समनस्कामनस्काः ।।११।। 'संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥१२॥ इन सूत्रोंके सम्बन्धमें टीकाकार सिद्धसेनने लिखा है कि अन्य आचार्य सूत्रको ही बदल देते है, वे पहले 'संसारिणः' फिर सस्थावराः और फिर 'समनस्कामनस्का' पढ़ते हैं यह ठीक नहीं है। ४. इसी अध्यायके 'उपयोगः स्पर्शादिषु ॥१९॥' सूत्रके सम्बन्धमें सिद्धसेनने लिखा है, कि कोई इसको सूत्र रूपसे नहीं मानते। उनका कहना है कि यह तो भाष्यके वाक्यको सूत्र बना दिया है । दिगम्बर पाठमें यह सूत्र नहीं है। ५. इसी दूसरे अध्यायके २४वें सूत्र और उसके भाष्यको लेकर सिद्धसेनने लिखा है-अन्य आचार्य इस भाष्यको अतिविसंस्थुल (अत्यन्त असन्तुलित) देख १. 'अव्याप्तिदोषभीत्या चापरिमं विकल्पं प्रोज्झय अयं विकल्प उपन्यस्तो निश्चितमवगृह्णातीति ।'–सि० ग० टी०, भा०, पृ० ८५ । २. 'अन्ये पुनः सूत्रमेव विपर्यासयन्ति विभज्य प्राक् तावत् संसारिणः पश्चात् 'सस्थावराः' ततः समनस्कामनस्का इति ।'-सि०टी०, भा. १, पृ. १५६ । ३. 'केचिद् भाषन्ते सूत्रमिदं न भवति भाष्यमेव सूत्रीकृत्य केचिदधीयते ।' वही, पृ० १६९। ४. अपरेऽतिविसंस्थुलमिदमालोक्य भाष्यं विषण्णाः सन्तः सूत्रे मनुष्यादिग्रहण मनार्ष मिति सङ्गिरन्ते । अपरे वातकिनः स्वयमुपरम्य सूत्रमधीयते'अतीद्रियाः' केवलिनः ।-वही, पृ० १७५ । १७
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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