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________________ २५६ : जेनसाहित्यका इतिहास 'यथाख्यातमिति चारित्रम्' पाठ है और दूसरे सत्र पाठमें 'यथाख्यातानि चारित्रम्' पाठ है। फिर भी कोई संद्धान्तिक मतभेद इसमें नहीं है। इसी तरह ध्यानका स्वरूप बतलाने वाले सूत्र नं० २८ के अन्तमें प्रथम सूत्र पाठमें 'ध्यानमान्तर्मुहूत्'ि पाठ है । और दूसरे सूत्र पाठमें 'ध्यानम्' के साथ ही २७वां सूत्र समाप्त हो जाता है और 'आमुहर्तात' २८वां सत्र हैं। इसका अर्थ महर्तपर्यन्त होता है किन्तु टीकाकार सिद्धसेन गणिने उसका अर्थ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही किया है। आर्तध्यानका कथन करनेवाले सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तरके साथ ही साथ भेदोंके क्रममें भी थोड़ा अन्तर है। किन्तु धर्म ध्यानका कथन करने वाले सूत्रमें धर्म ध्यानके स्वामीको लेकर मौलिक अन्तर है । प्रथम सूत्र पाठमें धर्मध्यानके प्रतिपादक सूत्र नं० २६ के अन्तमें स्वामीका विधान करनेवाला 'अप्रमत्तसंयतस्य' अंश नहीं है, जबकि दूसरे सूत्रपाठमें है। तथा दूसरे सूत्रपाठमें इस सूत्रके बाद जो 'उपशान्त-क्षीणकषाययोश्च ॥३८॥ सूत्र है वह भी प्रथम सूत्र पाठमें नहीं है। अकलंकदेवने इन दोनोंका खण्डन किया है। शुक्लध्यान प्रतिपादक सूत्रोंमेंसे भी एक दो में थोड़ा सा अन्तर पाया जाता है। १० दसवें अध्यायमें प्रथम सूत्र पाठका दूसरा सूत्र दूसरे सूत्र पाठमें दो सूत्रोंमें विभक्त है। इसी तरह प्रथम सूत्रपाठके सूत्र नं० ३ और ४, दूसरे सूत्रपाठमें एक सूत्रके रूपमें संयुक्त हैं। तथा 'भव्यत्वानां' के स्थानमें 'भव्यत्वाभावाच्च' पाठ है । प्रथम सूत्र पाठके सूत्र नं० ७ और ८ दूसरे सूत्र पाठमें नहीं हैं । उनकी पूर्ति भाष्यसे हो जाती है। इस तरह दोनों सूत्र पाठोंमें साधारण अन्तरके साथ ही साथ मौलिक अन्तर भी पाया जाता है। भाष्य समस्त सूत्र पाठमें मतभेदका बाहुल्य-तत्त्वार्थसूत्रके जिस सूत्र पाठ पर सर्वार्थसिद्धि टीका बनी है और जिसे दिगम्बर परम्परा मान्य करती है, उस सूत्र पाठमें क्वचित् हो साधारण पाठभेद पाया जाता है। जैसे तीसरे अध्यायके ३८वें सूत्रमें सर्वार्थसिद्धि में 'नृस्थिती परापरे' पाठ है और तत्वार्थवातिकमें 'नृस्थिती परावरे' पाठ है। इस तरहका शब्द भेद भी बहुत ही विरल है । अतः यह कहा जा सकता है कि दिगम्बर परम्पराके सूत्र पाठमें कोई अन्तर नहीं है, वह एक रूपमें ही मान्य है । किन्तु तथोक्त स्वोपज्ञ भाष्यके रहते हुए भी भाष्य सम्मत सूत्रपाठमें बहुत मतभेद है । टीकाकार सिद्धसेन गणिने अपनी १. 'धर्म्यमप्रमत्तस्येति चेत्, न, पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसंगात् ॥१३॥' 'उपशान्त क्षीणकषाययोश्चेतिचेन्न शुक्लाभावप्रसंगत् ।।१४।।-त० वा०, पृ० ६३२ । २. दोनों सूत्रपाठोंके अन्तरका स्पष्ट विबरण पं० सुखलालजीकृत तत्त्वार्थ सूत्रके हिन्दी अनुवादके प्रारम्भमें दिया हुआ है ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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