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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २५५ आलोचना करते हुए उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है और अपने पक्षके समर्थनमें षट्खण्डागम' का प्रमाण दिया है। प्रथम सूत्र पाठमें 'कालश्च ॥३९॥ सूत्र है
और दूसरे सूत्र पाठमें 'कालश्चेत्येके ॥३८।। सूत्र है। इस अन्तरका कारण यह है कि दिगम्बर परम्परा एक मतसे कालको द्रव्य मानती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें मतभेद है। दूसरे सूत्र पाठके अन्तिम तीन सूत्र ४२-४४ प्रथम सूत्र पाठमें नहीं हैं। अकलंकदेवने' उसमें प्रतिपादित मतका खण्डन किया है।
छठे अध्यायमें सैद्धान्तिक मतभेदकी दृष्टिसे दोनों सूत्र पाठोंमें कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं हैं। फिर भी अन्तर तो है ही। दूसरे सूत्र पाठमें शुभः पुण्यस्य ॥३॥ अशुभःपापस्य ये, दो सूत्र हैं और प्रथम सूत्र पाठमें एक सूत्रके रूपमें हैं । और अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य ॥१७। स्वभावमार्दवं च ॥१८॥ प्रथम सूत्र पाठमें ये दो सूत्र हैं। और दूसरे सूत्र पाठमें इनके स्थानमें एक सूत्र है-अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य ॥१८॥
७ सातवें अध्यायमें सूत्र तीनके पश्चात् अहिंसा आदि व्रतोंकी भावनाओंको बतलानेवाले ५ सूत्र प्रथम सूत्र पाठ में है, किन्तु दूसरेमें नहीं है । सूत्र तीनके भाष्यमें उनका भाव आ जाता है । इसके सिवाय कई सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर पाया जाता है।
८ आठवें अध्यायका दूसरा सूत्र दूसरे सूत्र पाठमें दो सूत्रोंके रूपमें विभक्त है । ज्ञानावरणीय कर्मके पाँच भेद बतलानेवाला सूत्र दूसरे सूत्र पाठमें 'मत्यादीनाम्' ॥५॥है जो संक्षिप्त है। किन्तु प्रथम सूत्र पाठमें ‘मतिश्रु तावधिमन:पर्ययकेवलानाम् ॥६।। है । अकलंकदेवने 'मत्यादीनाम्' पाठकी आलोचना करके प्रथम सूत्र पाठ वाले सूत्रको ही संगत बतलाया है । इसी तरह दूसरे सूत्र पाठमें 'दानादीनाम् ॥१४॥' सूत्र है। उसके स्थानमें प्रथम सूत्र पाठमें 'दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥' सूत्र है। इनमें कोई संद्धान्तिक मतभेद नहीं है । किन्तु पुण्य प्रकृतियोंका प्रतिपादन करने वाले सूत्रोंमें मौलिक अन्तर है । तथा दूसरे सूत्र पाठमें पाप प्रकृतियोंको बतलाने वाला कोई सूत्र नहीं है, जबकि प्रथम सूत्र पाठमें 'ततोऽन्यत् पापम् ॥२६॥ सूत्र है ।
९ नौवें अध्यायमें शाब्दिक भेदोंके सिवाय जो उल्लेखनीय अन्तर हैं, वे इस प्रकार हैं - चारित्रके भेद बतलाने वाले सूत्र नं० १८ के अन्तमें प्रथम सूत्र पाठमें १. त० वा०, पृ० ५०३ । २ 'मत्यादीनामिति पाठो लघुत्वादिति चेत् न'.."त० वा०, पृ० ५७० । ३. 'सद्वेद्यशुभापुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥५५॥ तथा 'सद द्य-सम्यक्त्व हास्यरति
पुरुषवेदशुभायुनामगोत्राणि पुण्यम् ॥३६॥'