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२५४ : जेनसाहित्यका इतिहास
३. तीसरे अध्यायमें प्रथम पाठमें २१सूत्र अधिक हैं। दूसरे पाठमें वे सूत्र नहीं है । पहले सूत्रमें दोनों पाठोंमें थोड़ा अन्तर है। दूसरे पाठमें 'अधोऽषः पृथुतरा' पाठ है जबकि पहलेमें 'पृथुतरा' पाठ नहीं है। अकलंक देवने तत्त्वार्थ' वातिकमें इस पाठकी आलोचना की है और उसे सदोष बतलाया है। सैद्धान्तिक दृष्टिसे अन्य कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं है ।
४. चौथे अध्यायमें उल्लेखनीय अन्तर हैं। जिनमेंसे सबसे अधिक उत्लेखनीय है स्वर्गोकी संख्यामें अन्तरका होना। प्रथम पाठके अनुसार स्वर्ग सोलह गिनाये गये हैं और दूसरे पाठके अनुसार बारह गिनाये गये हैं । किन्तु अकलंक देवने इस मतभेदकी चर्चा नहीं की है। किन्तु स्वर्गके देवोंमें प्रवीचारको बतलानेवाले सूत्र में 'शेषाः स्पर्शरूपशब्द मनः प्रवीचाराः' के अन्तमें द्वितीय पाठमें 'द्वयोदयोः' पाठ अधिक है । अकलंकने इसकी आलोचना करके उसे 'आर्ष विरुद्ध' बतलाया है। देवोंकी स्थितिके सम्बन्धमें दोनों परम्पराओंमें अन्तर है। अतः सूत्र पाठमें भी अन्तर पाया जाता है। लोकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र प्रथम सूत्र पाठमें है, दूसरेमें नहीं है ।
५. पांचवे अध्यायमें अन्तर परक पाँच छ स्थल है। दूसरे सूत्र पाठमें 'द्रव्याणि' 'जीवाश्च' यह एक सूत्र हैं। किन्तु प्रथम सूत्र पाठ में ये दो सूत्र है। अकलंक देव ने तत्त्वार्थ वार्तिकमें यह शङ्का उठाई है कि 'द्र व्याणि जीवाः' ऐसा एक ही सूत्र क्यों नहीं रखा। अकलंक देव ने उसका समाधान करके दो सूत्र रखनेका ही समर्थन किया है। इसी तरह दूसरे सूत्र पाठमें 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः' 'जीवस्य' ये दो सूत्र हैं । प्रथम सूत्र पाठमें दोनोंके स्थानमें एक ही सूत्र है-'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मंकजीवानाम् ।
पहले सूत्र पाठमें 'सद्रव्य लक्षणम्' '॥२९॥' यह सूत्र अधिक है। दूससे सूत्र पाठमें यह सूत्र तो नहीं है किन्तु भाष्यमें उसका आशय आगया है। उक्त अन्तरोंमें सैद्धान्तिक मतभेदकी कोई बात नहीं है। किन्तु पुद्गल परमाणुओंके बन्धके कथनमें सैद्धान्तिक मतभेद पाया जाता है। प्रथम सूत्र पाठमें 'बन्धेऽधिको पारिणामिको ॥३७॥ पाठ है और दूसरे सूत्र पाठमें उसके स्थान 'बन्धे समाधिको पारिणामिको' '॥३५॥' पाठ है। अकलंक देवने 'समाधिको' पाठकी १. 'पृथुतराः' इतिकेषाञ्चित् पाठः ।'-त० वा०, पृ० १६१ । २. 'द्वयोर्द्वयोरितिवचनात् सिद्धिरितिचेत् न आर्षविरोधात्' । त० वा०,
पृ० २१५ । १. 'समाधिकावित्यपरेषां पाठः ॥३॥ तदनुपपत्तिरार्षविरोधात् ॥४॥-त० वा०,
पृ० ५००।