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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २५३
२. दूसरे अध्यायमें प्रथम सूत्र पाठमें 'तेजसमपि' तथा 'शेषास्त्रिवेदाः ।' दो सूत्र अधिक हैं । पहलेमें थोड़ा सैद्धान्तिक मत भेद भी है। इसी तरह दूमरे सूत्र पाठमें 'उपयोगः स्पर्शादिषु' || १९|| सूत्र अधिक है। शेष सूत्रोंमें समानता होते हुए भी कतिपय स्थलोंमें अन्तर पाया जाता है ।
प्रथम सूत्र पाठमें 'जीवभव्याभव्यत्वानि च ||७|| सूत्र है और दूसरेमें' जीव भव्याभव्यत्वादीनि च ||७|| सूत्र है । प्रथम पाठमें जिन पारणामिक भावोंका ग्रहण 'च' शब्दसे किया है दूसरे पाठपें उन्हींका ग्रहण 'आदि' पदसे किया है । अकलंकदेवने' 'आदि' पदको सदोष बतलाया है ।
संसारी जीवके दो भेद हैं त्रस और स्थावर । तथा स्थावरके पाँच भेद हैंपृथिवीकायिक, जलकायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक | ये भेद दोनों परम्पराओंको मान्य हैं । किन्तु त्रसका शब्दार्थ होता है - जो चलता है । इस अपेक्षासे दूसरे सूत्र पाठमें तैजस्कायिक और वायुकायिकको भी
स कहा है क्योंकि वायु और आगमें चलन क्रिया पाई जाती है । अतः दोनों सूत्रपाठोंके सूत्र १३-१४ में अन्तर पड़ गया है । कुन्दकुन्दने भी अपने पञ्चास्तिकाय ( गा० १११ ) में अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंको त्रस कहा है किन्तु उन्होंने उन्हें स्थावरोंके भेदोंमें भी गिनाया है । दूसरे सूत्रपाठ और उसके भाष्यमें भी स्थावरके तीन ही भेद बतलाये हैं । और तेजस्कायिक तथा वायुकायिककी गणना केवल त्रसोंमें ही की है । दूसरे अध्यायके अन्य भी दो चार सूत्रोंमें अन्तर पाया जाता है । यथा
प्रथम सूत्र पाठ
१. एक समयाऽविग्रहा ||२९||
२. एकं द्वौत्रीन्वाऽनाहारकः ||३०|| ३. जरायुजाण्डजपोतानां गर्मः ||३३|| ४. देवनारकारणामुपपादः ||३४|| ५. परं परं सूक्ष्मम् ||३७|| ६. चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४९ ॥ ७. औपपातिक चरमोत्तम देहा ॥४३ ||
द्वितीय सूत्र पाठ एक समयोऽविग्रहः ।। ३०॥ एकं द्वौ वाऽनाहारकः ॥ ३१॥ जराय्वण्डपोतजानां गर्भः ॥ ३४ ॥ नारकदेवानामुपपातः ।।३५।। तेषां परं परं सूक्ष्मम् ||३८|| चाहारकं चतुर्दशपूर्वघर ॥ ४६ ॥ औपपातिक चरमदेहोत्तम पुरुष ॥५२॥
इनमें से नं० २, ६ और ७ में जो अन्तर है वह सैद्धान्तिक मतभेदको लिए हुए हैं । नं० २ के (३१) सम्बन्ध में टीकाकार हरिभद्र और सिद्धसेनने लिखा है कि कोई 'वा' शब्दसे तीनका भी संग्रह करते हैं ।
१. 'आदिग्रहणमत्र न्याय्यमितिचेत् त्रिविधपारिणामिकभावप्रतिज्ञाहानेः' । - त० वा०, पृ० ११३ ।