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२५२ : जेनसाहित्यका इतिहास
१. प्रथम अध्यायमें दो सूत्रोंकी होनाधिकता है। एक सूत्र है "द्विविधोऽवधिः ॥२१॥ अवधि ज्ञानके दो भेद हैं। यह सूत्र प्रथम पाठमें नहीं है दूसरे में है। इसमें कोई सैद्धान्तिक भेद नहीं है । सैद्धान्तिक मत भेदकी दृष्टिसे अन्तिम दो सूत्र उल्लेखनीय हैं-'नैगमसंग्रहव्यवहारज सूत्रशब्दा नयाः ॥३४॥ आद्यशब्दो द्वित्रिभेदौ ॥ ३५ ॥ ये दोनों सूत्र दूसरे पाठमें हैं। पहले पाठमें इनके स्थानमें एक ही सूत्र है-'नगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढवंभूता नयाः ।।३३॥
दूसरे पाठके अनुसार नयके मूल भेद पांच है और उनमें से प्रथम नैगम नयके, दो भेद हैं और शब्दनयके साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवं भूत ये तीन भेद है । प्रथम पाठके अनुसार नयके मूल भेद सात हैं-नैगम संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । ये सात नयोंकी परम्परा ही प्राचीन परम्परा है। आगमोंको भी यही परम्परा मान्य है। दूसरे पाठ गत नयोंको परम्परा अन्यत्र नहीं मिलती। दूसरे पाठवाले सूत्रोंकी व्याख्यामें पं० सुखलालजीने भी इस बातको मान्य किया है लिखा है-'एक परम्परा तो सीधे तौर पर पहले से ही सात भेदोंको मानती है "यह परम्परा जैनागमों और दिगम्बर ग्रन्थों की है।........ तीसरी परम्परा प्रस्तुत सूत्र और उसके भाष्यगत है ।' (त० स० पृ० ५१)
यह तो हुआ दोनों सूत्रपाठोंमें दो सूत्रोंको लेकर अन्तर। शेष सूत्रोंमें समानता होते हुए भी तीन सूत्रोंमें किञ्चित् भेद पाया जाता है । सूत्र १५ में मतिज्ञानका तीसरा भेद भाष्य और उसके सूत्र में 'अपाय' है और सर्वार्थसिद्धिवाले प्रथम सूत्र पाठमें अवाय है। पं० सुखलालजीने अपायके स्थानमें 'अवाय' ही पाठ रखा है। नन्दि सूत्रमें भी 'अवाय' पाठ ही है । अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें दोनों पाठोंमें केवल शब्द भेद बतलाया है। किन्तु उभय परम्परा सम्मत प्राचीन पाठ अवाय ही है अपाय नहीं।
'बहु बहुविध' आदि सूत्र १६ में प्रथम पाठमें 'अनिसृतानुक्त' पाठ है और दूसरे पाठमें 'अनिसृतासन्दिग्ध' पाठ है। श्वे० स्थानांग सूत्र (सू०५१०) में और नन्दिसूत्रमें यही पाठ पाया जाता है । अवधिज्ञानके दूसरे भेदके प्रतिपादक सूत्रमें प्रथम पाठमें 'क्षयोपशमनिमित्तः' पाठ है और दूसरे में 'यथोक्तनिमित्तः' पाठ है । यद्यपि दोनोंके आशयमें कोई अन्तर नहीं है । तथापि क्षयोपशमके लिये 'यथोक्त' शब्दका प्रयोग असंगत है क्योंकि उससे पहले किसी सूत्रमें क्षयोपशम शब्द नहीं आया है।
१. 'बाह-किमयपाय उत अवाय ? उभयथा न दोषः । त० वा०, पृ० ६१