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________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २४९ ही प्रधान रूपसे वर्णन मिलता है । न्याय दर्शनमें प्रमाण, प्रमेय संशय, आदि सोलहपदार्थोके तत्त्व ज्ञानसे मोक्षको प्रप्ति बतलाई है अतः उसमें इन्हींका वर्णन है । प्रमाणोंके द्वारा अर्थको परीक्षा करनेका नाम न्याय है । अतः न्याय दर्शनमें अर्थ परीक्षाके साधनोंका ही मुख्य रूपसे कथन किया गया है। किन्तु योग दर्शनमें जीवनमें अशुद्धता लाने वाली चित्त वृत्तियोंका और उनके निरोधका तथा उसकी प्रक्रियाका वर्णन है । इस तरहसे उक्त दर्शनोंका विषय शेयप्रधान, ज्ञानसाधन प्रधान और चारित्र प्रधान है। परन्तु तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान ज्ञेय और चारित्रकी समान रूपसे चर्चा पाई जाती है । जैसे कुन्दकुन्दाचार्यके प्रवचनसारमें क्रमसे ज्ञान, ज्ञेय और चारित्रकी मीमांसा की गई है, तदनुसार ही तत्त्वार्थ सूत्रमें भी विषय विभाग किया गया है। इसका कारण यह है कि जहाँ वैशेषिक आदि दर्शनोंमें तत्त्वज्ञानसे निश्रेयसकी प्राप्ति बतलाई है वहाँ जैन दर्शनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको मोक्षका मार्ग कहा है । तथा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन और उनके यथार्थ ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहा है। अतः मुमुक्षु के लिये इन सात तत्त्वोंका श्रद्धान और ज्ञान होना आवश्यक है । उसके बिना मोक्षका मार्ग नहीं खुलता। इसीसे जैन दर्शनमें इन सात तत्त्वोंका जितना महत्त्व है उतना अन्य किसीका भी नहीं है । कुन्द निरूपण किया है इसीसे तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ताने भी उन्हींका वर्णन सूत्रोंमें करके अपने सूत्र ग्रन्थको विषयके अनुरूप तत्त्वार्थ नाम दिया है इन तत्त्वार्थोके माध्यमसे उन्होंने जैन सम्मत ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र सम्बन्धी प्रायः सभी मौलिक बातें संगृहीत कर दी हैं । १. पहले अध्यायमें ज्ञानकी, दूसरेसे पांचवे तक चार अध्यायोंमें ज्ञेयकी अर्थात दूसरे तीसरे और चौथे अध्यायमें जीवतत्त्वकी और पांचवेंमें अजीवतत्वकी, तथा छठेसे लेकर दसर्वे तक चारित्रकी, अर्थात् छठे और सातवें अध्यायमें आस्रव तत्त्व की, आठवें अध्यायमें बन्धतत्त्वकी, नौवें अध्यायमें संवर और निर्जरा तत्त्वोंकी और दसवें अध्यायमें मोक्ष तत्त्वकी चर्चा है । पहले अध्यायके 'प्रमाणनयरधिगमः' सूत्रसे ज्ञान विषयक चर्चाका प्रारम्भ होता है। प्रमाणकी चर्चा तो सब इतर दर्शनों में है, किन्तु नय तो जैन दर्शनके अनेकान्त वादकी ही देन है । अतः इसकी चर्चा इतर दर्शनों में नहीं पाई जाती । नय प्रमाणका ही भेद है । सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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